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(13) हारीतगोत्रीय श्रीश्यामार्यजी ।
(14) कौशिकगोत्रीय आर्यजीतधर शाण्डिल्यजी ।
आर्यजीतधर यह शाण्डिल्य आचार्य का विशेषण है। 'आर्य' का अर्थ-जो सभी प्रकार के त्यागने योग्य अधर्मों से दूर निकल गए हैं, उन्हें आर्य कहते हैं। 'जीत' शब्द का अर्थ होता है - शास्त्रीय मर्यादा, जिसे 'कल्प' भी कहते हैं। उस मर्यादा के धारण करने वाले को 'आर्य जीतधर' कहते हैं। वृत्तिकार ने आर्य जीतधर शाण्डिल्य आचार्य का विशेषण स्वीकृत किया है, किन्तु अन्य किन्हीं के विचार में शाण्डिल्य आचार्य के आर्य जीतधरजी शिष्य हुए और युग-प्रधान आचार्य भी। अत: उनको भी देववाचकजी ने वन्दन किया है । वृत्तिकार के इस विषय में निम्नलिखित शब्द हैं
“शाण्डिल्यं, - शाण्डिल्यनामानं वन्दे, किम्भूतमित्याह - 'आर्यजीतधरं ' आरात्सर्वहेयधर्मेभ्योऽर्वाग् यातम् - आर्यः । 'जीत' मिति सूत्रमुच्यते, जीतं स्थितिः कल्पो मर्यादा व्यवस्थेति हि पर्यायाः, मर्यादाकारणं च सूत्रमुच्यते, तथा 'धृङ् धारणे' ध्रियते धारयतीति धरः, 'लिहादिभ्य' इत्यच् प्रत्ययः, आर्यजीतस्य धरः आर्यजीतधरस्तम् अन्ये तु व्याचक्षतेशाण्डिल्यस्यापि आर्यगोत्रो शिष्य जीतधरनामा सूरिरासीत् तं वन्दे - इति । "
मूलम्-ति-समुद्द-खाय-कित्तिं, दीव-समुद्देसु गहिय-पेयालं । वंदे अज्ज - न-समुद्द, अक्खुभिय-समुद्द-गंभीरं ॥ २९ ॥ छाया - त्रि-समुद्र- ख्यात - कीर्ति, द्वीप - समुद्रेषु गृहीत- पेयालम् । वन्दे - आर्यसमुद्रं, अक्षुभित समुद्र - गम्भीरम् ॥ २९ ॥
पदार्थ-ति-समुद्द-खाय-कित्तिं - तीन समुद्रों पर्यन्त प्रख्यात कीर्ति वाले, दीव-समुद्देसु गहियपेयालं-विविध द्वीप और समुद्रों में प्रामाणिकता प्राप्त करने वाले अथवा द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के विशिष्ट विद्वान्, अक्खुभियसमुद्द-गंभीरं - क्षोभ रहित समुद्र की तरह गंभीर, अज्ज - समुद्दे - आर्य समुद्र को वन्दन करता हूं।
भावार्थ- पूर्व, दक्षिण और पश्चिम तीनों दिशाओं में लवणसमुद्र पर्यन्त ख्यातिप्राप्त, विविध द्वीप- समुद्रों में प्रमाण प्राप्त अथवा 'द्वीपसागर प्रज्ञप्ति के विद्वान', क्षोभरहित समुद्र के तुल्य गम्भीर आचार्य आर्यसमुद्रजी भी, देववाचकजी के हृदय सिंहासन पर आसीन थे, इसीलिए उन्हें वन्दन किया गया है।
टीका - इस गाथा में आचार्य शाण्डिल्य के उत्तरवर्ती
(15) श्री आर्यसमुद्र नामक आचार्य को वन्दन किया गया है। साथ ही आचार्य की महत्ता और विद्वत्ता का परिचय भी दिया गया है जैसे कि
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