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सुहस्ति को; वंदामि-वन्दन करता हूं। तत्तो-तत्पश्चात्, कोसियगोत्तं-कौशिक-गोत्रीय, बहुलस्स-बहुल के, सरिव्वयं-समान वय वाले, बलिस्सहं-बलिस्सह को, वन्दे-वन्दन करता हूं।
भावार्थ-एलापत्य-गोत्रीय आचार्य महागिरि और आचार्य सुहस्तीजी को वन्दन करता हूं। ये दोनों स्थूलभद्रजी के शिष्य हुए हैं। कौशिक-गोत्रीय बहुलमुनि के समान वय वाले बलिस्सह को भी मैं (देववाचक) वन्दन करता हूं।
टीका-कामविजेता श्रीस्थूलभद्रजी के सुशिष्य एलापत्य गोत्र वाले क्रमशः
(9-10) महागिरि और सुहस्ती .ट्टधर आचार्य हुए हैं। सुहस्ती आचार्य से लेकर सुस्थित, सुप्रतिबुद्ध आदि आवलिका क्रमशः निकली, इसकी विशेष जानकारी जिज्ञासुओं को दशाश्रुतस्कन्ध की टीका से करनी चाहिए। क्योंकि यहां पर इस विषय का अधिकार नहीं है। इस स्थान पर महागिरि स्थविरावली का अधिकार है। इस पर वृत्तिकार ने लिखा है कि
"तत्र सुहस्तिन आरभ्य सुस्थित सुप्रतिबुद्ध आदि क्रमेणावलिका विनिर्गता सा यथा, दशाश्रुतस्कन्धे तथैव द्रष्टव्या, न च तयेहाधिकारः, तस्यामावलिकायां प्रस्तुताध्ययन- . कारकस्य देववाचकस्याभावात् तत इह महागिरि-आवलिकाया अधिकारः।"
महागिरि आचार्य के दो शिष्य हुए हैं-बहुल और बलिस्सह-ये दोनों यमल भ्राता और कौशिक गोत्र वाले थे, किन्तु दोनों में से
11. बलिस्सह तयुग के प्रधान आचार्य हुए हैं। दोनों यमलभ्राता तथा गुरुभ्राता होने से स्तुतिकार ने उन्हें बड़ी श्रद्धा से नमस्कार किया है। मूलम्- हारियगुत्तं साइं च वंदिमो हारियं च सामजं ।
वंदे कोसिय-गोत्तं संडिल्लं अज्जजीयधरं ॥ २८ ॥ ' छाया- हारीतगोत्रं स्वातिं च वन्दे हारीतं च श्यामार्यम् ।
- वन्दे कौशिकगोत्रं शाण्डिल्यमार्यजीतधरम् ॥२८॥ . पदार्थ-हारियगुत्तं साई-हारीत-गोत्री स्वाति को, च-और, हारियं च सामन्जं-हारीतगोत्री श्यामार्थ को, वन्दे-वन्दन करता हूं, कोसिय-गोत्तं संडिल्लं-कौशिक-गोत्री शाण्डिल्य, अज्जजीयधरं-आर्यजीतधर को, वन्दे-वन्दन करता हूं। .. भावार्थ-आचार्य स्वाति, श्यामार्य, आचार्य शाण्डिल्य, इन सबको मैं वन्दन करता
. टीका-इस गाथा में भी देववाचकजी ने श्रद्धास्पद युगप्रधान आचार्य-प्रवरों का परिचय । देकर वन्दना की है।
(12) हारीतगोत्रीय श्रीस्वातिजी।।
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