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माढरगोत्रीय संभूतविजयजी को, भद्दबाहुंच पाइन्न-प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहुजी को, थूलभदं च गोयमं-गौतमगोत्रीय स्थूलभद्रजी को, वंदे-मैं वन्दन करता हूं।
भावार्थ-आचार्य यशोभद्रजी, संभूतविजयजी, भद्रबाहुजी और गौतमगोत्रीय स्थूलभद्रजी, इनका मैं अभिवादन करता हूं। _____टीका-उक्त गाथा में तुंगिकगोत्री यशोभद्र, माढर गोत्र वाले सम्भूतविजयजी, प्राचीन गोत्रीय भद्रबाहुस्वामीजी और गौतमगोत्रीय स्थूलभद्रजी इत्यादि आचार्यप्रवरों को वन्दनानमस्कार किया है। ये सुशिष्य और आचार्य से सम्बन्ध रखते हैं।
5. यशोभद्र स्वामी आचार्य श्रीशय्यम्भव स्वामी के शिष्य और उन्हीं के पट्टधर थे। वे 22 वर्ष गृहस्थ में, 14 वर्ष संयम-पर्याय में और 50 वर्ष युगप्रधान आचार्यपद पर रहे। इस प्रकार कुल 86 वर्ष की आयु में संयम और संघ सेवा की साधना पूर्ण करके स्वर्गवासी हुए। इनका देवलोक वीर निर्वाण सं. 148 वर्ष में हुआ।
आचार्य यशोभद्र स्वामीजी के-6. संभूतविजय और भद्रबाहु ये दो शिष्य हुए और दोनों क्रमशः पट्टधर हुए हैं। संभूत- विजयजी 42 वर्ष गृहवास में रहे। 40 वर्ष श्रुत, संयम और तप की आराधना में लगे रहे तथा 8 वर्ष युगप्रवर्तक आचार्य पदवी को शोभित करते रहे। सर्वायु 90 वर्ष समाप्त करके देवलोक पधारे। ___तत्पश्चात् उन्हीं के गुरुभ्राता-7. भद्रबाहु स्वामी पट्टधर हुए हैं। आप 45 वर्ष गृहवास में रहे। 17 वर्ष संयम, तप तथा 14 पूर्वो के अध्ययन में लगे रहे। 14 वर्ष युगप्रधान होकर आचार्यपद को विभूषित करके श्रीसंघ की सेवा की। आपने श्रुतज्ञान का अत्यन्त प्रचार किया। महाराजा चन्द्रगुप्त आपका अनन्य सेवक रहा। आप सर्वायु 76 वर्ष की समाप्त कर देवलोक सिधारे। वीर निर्वाण सं. 170 में भद्रबाहुजी स्वामी का देवलोक हुआ।
8. स्थूलभद्रजी आठवें युगप्रधान आचार्य हुए हैं। आप 20 वर्ष गृहवास में रहे। 24 वर्ष साधना में लगे रहे और 45 वर्ष आचार्य बनकर श्रीसंघ की सेवा की। आपने पूर्वो की विद्या आचार्य श्री भद्रबाहु से प्राप्त की। सर्वायु 99 वर्ष की पूर्ण की। वीर नि.सं. 215 में आप स्वर्ग के वासी हुए। आप अपने युग में कामविजेता हुए हैं। आचार्य प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, सम्भूतविजय, भद्रबाहु और स्थूलभद्रस्वामी ये 6 आचार्य 14 पूर्वो के वेत्ता थे। . मूलम्- एलावच्च - सगोत्तं, वंदामि महागिरिं सुहत्थिं च ।
तत्तो-कोसिअ-गोत्तं, बहुलस्स सरिव्वयं वंदे ॥ २७ ॥ छाया- एलापत्य-सगोत्रं, वन्दे महागिरिं सुहस्तिनञ्च ।
ततः कौशिकगोत्रं, बहुलस्य सदृग्वयसं वन्दे ॥ २७ ॥ पदार्थ-एलावच्च-सगोत्तं-एलापत्य गोत्र वाले, महागिरिं सुहत्थिं च-महागिरि और
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