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तथा देवांगना-सदृश आठ स्त्रियों के सुख, मोह-ममत्व को छोड़कर भगवती दीक्षा ग्रहण की। आप 16 वर्ष गृहस्थवास में रहे और बारह वर्ष गुरु की सेवा में रहकर शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किया। 8 वर्ष आचार्य बनकर श्रीसंघ की दत्तचित्त होकर सेवा की। 44 वर्ष कैवल्य-पर्याय में रहकर निर्वाण-पद को प्राप्त किया अर्थात् श्रीजम्बूस्वामी जी भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात् चौंसठवें वर्ष में मोक्ष पधारे।
श्रीजम्बूस्वामी जी के पट्टधर शिष्य प्रभव स्वामी जी हुए, जो राजकुमार थे। जीवन की किसी विशेष घटना के कारण उन्हें चोरी का व्यसन लग गया। आप एक दिन पांच सौ (500) चोरों को साथ लेकर राजगृह नगर में जम्बूकुमारजी की सम्पत्ति को लूटने के लिए आए। उस समय जम्बूकुमारजी ने आपको प्रतिबोध दिया। क्योंकि जो स्वयं वैराग्य-रंग से अनुरंजित होसे हैं, वे ही दूसरों को अपने जैसा बना सकते हैं। तब प्रभव स्वामीजी अपने साथी 500 चोरों सहित जम्बूकुमारजी के साथ ही दीक्षित हुए, अर्थात् मुनिव्रत को धारण किया। आप तीस वर्ष तक गृहस्थावस्था में रहे। जो व्यक्ति गृहवास में चोरों के अधिनायक रहे हैं, सत्संग के प्रभाव से वे ही महापुरुष मुनियों के तथा श्रीसंघ के अधिनायक बने। श्रीमहावीर के निर्वाण के 75 वर्ष पश्चात् आप स्वर्ग में पधारे।
श्रीप्रभव स्वामी के पट्टधर शिष्य श्रीशय्यंभव स्वामी हुए हैं, जिन्होंने अपने सुपुत्र तथा सुशिष्य मनक अनगार के लिए श्रीदशवैकालिक सूत्र की रचना की। आप 28 वर्ष गृहवास में रहे। ग्यारह वर्ष सामान्य साधु-पर्याय में, तथा तेइस वर्ष युगप्रधान आचार्यपद पर रहकर आपने श्रीसंघ की सेवा की। सर्वायु बासठ वर्ष की भोगकर वीर निर्वाण सं. 98 में स्वर्गवासी
हुए।
उक्त गाथा में गोत्रों का उल्लेख आया है, जिनकी व्युत्पत्ति वृत्तिकार ने व्याकरण के अनुसार निम्नलिखित की है, जैसे कि- “अग्निवेशस्यापत्यं वृद्धं आग्निवेश्यो, 'गर्गादेर्यबिति' यञ्। प्रत्ययः तस्याप्यपत्यमाग्निवेश्यायनः, कश्यपस्यापत्यं काश्यपः “विदादेर्वृद्धः' इत्यण प्रत्ययः, कतस्यापत्यं कात्यः ‘गर्गादेर्यजिति' यञ् प्रत्ययः तस्यापत्यं कात्यायनः, वत्सस्यापत्यं वात्स्यो गर्गादेर्यजिति यञ् प्रत्ययः।" । मूलम्- जसभदं तुंगियं वंदे, संभूयं चेव माढरं ।
भद्दबाहुं च पाइन्नं, थूलभदं च गोयमं ॥ २६ ॥ छाया- यशोभद्रं तुंगिकं वन्दे, संभूतं चैव माढरम् ।
भद्रबाहुं च प्राचीनं, स्थूलभद्रं च गौतमम् ॥ २६ ॥ पदार्थ-जसभई तुंगियं-तुंगिक-गोत्रीय यशोभद्रजी को, संभूयं चेव माढर-और
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