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युग-प्रधान स्थविरावलि-वन्दन मूलम्-सुहम्म अग्गिवेसाणं, जंबू नाम च कासवं ।
पभवं कच्चायणं वंदे, वच्छं सिज्जंभवं तहा ॥ २५॥ छाया- सुधर्माणमग्निवेश्यायनं, जम्बूनामानं च काश्यपम् ।
प्रभवं कात्यायनं वन्दे, वात्स्यं शय्यंभवं तथा ॥ २५ ॥ पदार्थ-सुहम्मं अग्गिवेसाणं-अग्निवेश्यायनगोत्रीय श्रीसुधर्मा स्वामीजी को, जंबू नाम च कासवं-काश्यपगोत्रीय श्रीजम्बूस्वामीजी को, पभवं कच्चायणं-कात्यायनगोत्रीय प्रभव स्वामी जी को, वच्छं सिज्जभवं तहा-तथा वत्सगोत्रीय श्रीशय्यम्भव जी को, वंदे-इन युगप्रधान आचार्य-प्रवरों को मैं वन्दन करता हूं। __ भावार्थ-भगवान् महावीर के पंचम गणधर श्रीसुधर्मा स्वामी जी, श्री जम्बू स्वामी जी, प्रभव स्वामी जी, तथा आचार्य शय्यम्भव स्वामी जी, मैं (देववाचक) इन सबका अभिवादन करता हूं।
टीका-उक्त गाथा में भगवान महावीर के निर्वाणपद प्राप्त करने के पश्चात् गणाधिपति होने के नाते श्रीसुधर्मा से लेकर कतिपय पट्टधर आचार्यों का क्रमशः नामोल्लेख करके वर्णन किया है। भगवान् महावीर के पश्चात् युगप्रधान आचार्य श्रीसुधर्मा स्वामीजी हुए हैं। श्रीसुधर्मा पंचम गणधर हुए हैं। तीर्थंकर के होते हुए ही गणधरपद होता है। भगवान के निर्वाण के बाद यदि उन गणधरों की छद्मस्थ अवस्था व्यतीत हो रही हो, तो वे आचार्य बन सकते हैं, वह भी तब जब कि उनके आगे शिष्य परम्परा का आरम्भ हो जाए। ग्यारह गणधरों में सुधर्माजी के ही शिष्य हुए हैं। अन्य दस गणधरों की कोई शिष्य-परम्परा नहीं चली, तथा आगम में कहा भी है-तित्थं च सुहम्माओ, निरवच्चा गणहरा सेसा।
1. सुधर्मा स्वामी का गोत्र अग्निवेश्यायन था उनके शिष्य2. जम्बू स्वामी काश्यप गोत्र वाले थे। उनके शिष्य3. प्रभव स्वामी कात्यायन गोत्र वाले थे। उनके शिष्य- . 4. शय्यम्भव स्वामी वात्स्यगोत्र वाले थे।
सुधर्मा स्वामी 50 वर्ष गृहस्थावस्था में रहे, तीस वर्ष पर्यन्त गणधर पदवी पर रहे, बारह वर्ष तक आचार्य बनकर शासन को दिपाया और आठ वर्ष कैवल्य-पर्याय में रहे। इस प्रकार सर्व आयु सौ वर्ष की पूर्ण कर निर्वाण को प्राप्त हुए। ___उनके पट्टधर श्रीजम्बू स्वामी हुए हैं। वे राजगृह नगर के निवासी सेठ ऋषभदत्त के सुपुत्र, धारिणी नाम वाली सेठानी के अंगज थे। आपने निन्यानवें (99) करोड़ स्वर्ण मुद्राएं
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