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दूसरों का भी कल्याण करना । गण- गच्छ का कार्यभार गणधरों के सुदृढ़ कन्धों पर होता है। भगवान् से अर्थ सुनकर द्वादशांग-गणिपिटक की रचना गणधर ही करते हैं। उनका वह प्रवचन आज भी उपकार कर रहा है। जैसे कि कहा भी है
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"एते च गणभृतः सर्वेऽपि तथाकल्पत्वाद् भगवदुपदिष्टं उप्पन्नेइ वेत्यादि मातृकापादत्रयमधिगम्य सूत्रतः सकलमपि प्रवचनं दृब्धवन्तः, तच्च प्रवचनं सकल - सत्त्वानामुपकारकं विशेषत इदानीन्तनजनानाम्। "
इस वृत्ति का भाव यह है कि उत्पाद, व्यय और ध्रुव इन तीन पदों से अर्थों को जानकर सूत्र रूप से सकल प्रवचन की रचना की । वह प्रवचन आज पर्यन्त सांसारिक जीवों पर महान् उपकार कर रहा है। अत: गणधरदेव परोपकारी महापुरुष हुए हैं।
वीर - शासन की महिमा
मूलम् - निव्वुइ-पह - सासणयं, जयइ सया सव्व-भाव - देसणयं । कुसमय-मय-नासणयं, जिणिंदवर- वीर - सासणयं ॥ २४ ॥ निर्वृत्ति - पथ - शासनकं, जयति सदा सर्वभावदेशनकम् । कुसमय-मद-नाशनकं, जिनेन्द्रवर- वीर-शासनकम् ॥ २४ ॥
छाया
पदार्थ - निव्वुइ-पह - सासणयं - निर्वाण पथ का शासक, सव्वभाव - देसणयं सर्वभावों का प्ररूपक, कुसमय-मय-नासणयं - अन्ययूथिकों के मद को नष्ट करने वाला, जिणिंदवरवीर - सासणयं - वीर जिनेन्द्र का श्रेष्ठ शासन, जयइ सया-सर्वदा सर्वोत्कृष्ट अतिशयवान है।
भावार्थ- सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप मोक्षपद का प्रदर्शक, जीव- अजीव आदि पदार्थों का प्रतिपादक, और कुदर्शन के अभिमान का मर्दक, जिनेन्द्र भगवान महावीर का शासन-प्रवचन सदा जयवन्त है।
टीका - इस गाथा में जिन प्रवचन तथा जिन- शासन की स्तुति की गई है, जैसे कि 1. वह जिनशासन निर्वृत्ति- - पथ का शासक है। शासन शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य लिखते हैं-निर्वृत्ति-पथस्य शासनं, शिष्यतेऽनेनेति शासनम् प्रतिपादकं निर्वृत्तिशासनम् । 2. जिन प्रवचन सर्वभावों का प्रकाशक है, क्योंकि निर्मल स्वच्छ श्रुतज्ञान के प्रकाश से सर्व पदार्थ प्रकाशित हो रहे हैं। 3. यह जिनशासन कुसमयमद का नाशक है, जैसे सूर्य के प्रकाश
अन्धकार नष्ट हो जाता है, वैसे ही जिनशासन कुत्सित मान्यताओं का नाशक है। अत: यह शासन प्राणिमात्र का हितैषी होने से सदैव उपादेय है और मुमुक्षुओं के द्वारा ग्राह्य है, इसी कारण वह जिनशासन सर्वोत्कृष्ट है। जयति-क्रिया का अर्थ है - सर्वोत्कर्षेण वर्तते-जो विश्व में सर्वोपरि अतिशयवान हो, उसी के लिए 'जयति' का प्रयोग किया जाता है।
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