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छाया- नगर-रथ-चक्र-पञ, चन्द्र सूर्ये समुद्रे मेरौ ।
य उपमीयते सततं, तं संघ-गुणाकरं वन्दे ॥ १९ ॥ पदार्थ-नगर-रह-चक्क-पउमे-नगर-रथ-चक्र और पद्म में, चंदे-सूरे समुद्दे मेरुम्मिचन्द्र, सूर्य, समुद्र और मेरु में, जो उवमिज्जइ सययं-जो सतत उपमित किया जाता है, तं संघ-गुणायरं वंदे-गुणों के अक्षयनिधि उस संघ को स्तुतिपूर्वक वन्दना करता हूं।
भावार्थ-नगर, रथ, चक्र, पद्म, चन्द्र, सूर्य, समुद्र तथा मेरु इनमें जो अतिशयी गुण होते हैं तदनुरूप संघ में भी अद्भुत दिव्य लोकोत्तरिक अतिशयी गुण हैं। अतः संघ को सदैव इनसे उपमित किया जाता है। जो संघ अनंत-अनंत गुणों की खान है, ऐसे विशिष्ट संघ को वंदन करता हूं। ___टीका-इस गाथा में नगर, रथ, चक्र, पद्म, चन्द्र, सूर्य, समुद्र और मेरु इन आठ उपमाओं से श्रीसंघ को उपमित करके संघस्तुति का उपसंहार किया है। स्तुतिकार ने गाथा के अन्तिम चरण में श्रद्धा से नतमस्तक हो श्रीसंघ को नमस्कार किया है तथा च तं संघ-गुणायरं वंदे इस पद से सूचित किया है कि श्रीसंघ गुणों का आकर (खान) है। उस संघ को मैं वन्दना करता हूं, वह मेरा ही नहीं अपितु विश्ववन्द्य है। इस कथन से यह भी सिद्ध होता है कि नाम, स्थापना और द्रव्यरूप निक्षेप को छोड़कर केवल भावनिक्षेप ही वन्दनीय है। क्योंकि जो गुणाकार है वही भावनिक्षेप है।
वृत्तिकार ने उपर्युक्त दोनों गाथाएं ग्रहण नहीं की, किन्तु टिप्पणी में “अधिकमिदं युगमन्यत्र" ऐसा उल्लेख किया गया है। ये दो गाथाएं बहुत-सी प्राचीन प्रतियों में देखी जाती हैं, इसी कारण ये दोनों गाथाएं यहां लिखी गई हैं और इनका प्रस्तुत प्रकरण में विरोध भी नहीं झलकता।
चतुर्विंशति जिन-स्तुति मूलम्- (वंदे) उसभं अजियं संभवमभिनंदण-सुम; सुप्पभं सुपासं ।
ससि-पुष्पदंत-सीयल सिज्जंसं वासुपुजं च ॥ २० ॥ विमलमणंतं च धम्म संतिं कुंथु अरं च मल्लिं चः ।
मुणिसुव्वयं नमि नेमिं पासं तह वद्धमाणं च ॥ २१ ॥ छाया- (वन्दे) ऋषभमजितं सम्भवमभिनंदनसुमतिसुप्रभसुपार्श्वम् ।
शशि - पुष्पदंत - शीतल - श्रेयांसं - वासुपूज्यं च ॥२०॥ विमलमनन्तं च धर्मं शांतिं कुंथुमरं च मल्लि च । मुनिसुव्रत-नमि-नेमिं, पार्वं तथा वर्द्धमानं च ॥ २१ ॥
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