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________________ भावार्थ- ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, सुप्रभ, सुपार्श्व, शशि- चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त - सुविधि, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि-अरिष्टनेमि, पार्श्व और वर्द्धमान- श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करता हूं। टीका - उपर्युक्त प्रस्तुत दो गाथाओं में तीर्थंकरों के नामों का कीर्तन किया गया है। पांच भरत तथा पांच ऐरावत, इन दस क्षेत्रों में अनादि कालचक्र का ह्रास - विकास चल रहा है। छः आरे अवसर्पिणी के और छ: आरे उत्सर्पिणी के, दोनों को मिलाकर एक कालचक्र होता है। अवसर्पिणी में ह्रास होता है और उत्सर्पिणी में विकास। प्रत्येक अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी में चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नव बलदेव नव वासुदेव तथा नव प्रति वासुदेव, इस प्रकार त्रिषष्टि शलाका पुरुष होते हैं। ऋषभदेव भगवान् और उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती तीसरे आरे में हुए हैं। शेष सब महापुरुष चौथे आरे में हुए हैं। आजकल अवसर्पिणी काल का पांचवां आरा चल रहा है। उत्सर्पिणी काल के तीसरे आरे में तेइस तीर्थंकर ग्यारह चक्रवर्ती, नौ वासुदेव, नौ बलदेव, और नौ प्रतिवासुदेव होते हैं। उसके चौथे आरे में चौबीसवें तीर्थंकर और बारहवें चक्रवर्ती होने का अनादि नियम है। तीर्थंकरपद विश्व में सर्वोत्तम पद माना जाता है। तीर्थंकर देव धर्मनीति के महान् प्रवर्तक होते हैं । भगवान् महावीर चौबीसवें तीर्थंकर हुए हैं। सभी तीर्थंकर साधु-साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप भावतीर्थ की स्थापना करते हैं। वे 'किसी पन्थ की बुनियाद नहीं डालते बल्कि धर्म का मार्ग बतलाते हैं। वे स्वयं तीन लोक के पूज्य एवं वंद्य होते हैं। उनके कोई गुरु नहीं होते, उनकी साधना न कोई सहायक होता है और न कोई मार्ग-दर्शक, वे जन्म से ही तीन ज्ञान के धारक होते हैं । चारित्र लेते ही उन्हें विपुलमति मन: पर्याय ज्ञान हो जाता है। घाति कर्मों के सर्वथा विलय होते ही उन्हें केवलज्ञान हो जाता है। तत्पश्चात् धर्म तीर्थ की स्थापना करते हैं। इसी कारण उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। पद्मप्रभजी का अपर नाम यहां सुप्रभ का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। चन्द्रप्रभा अपर नाम शशि और सुविधि जी का अपर नाम पुष्पदन्त है। गणधरावलि मूलम् - पढमित्थ इंदभूई, बीए पुण होइ अग्गिभूइत्ति । तइए य वाउभूई, तओ वियत्ते सुहम्मे य ॥ २२ ॥ मंडिय-मोरियपुत्ते, अकंपिए चेव अयलभाया य । मेयज्जे य पहासे, गणहरा हुन्ति वीरस्स ॥ २३ ॥ * 141 *
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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