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________________ है। वह दूर की अपेक्षा निकटतम में अधिक रमणीय लगता है। किन्तु श्रीसंघमेरु दूर और निकटतम दोनों अवस्थाओं में रमणीक ही है। प्रकारान्तर से संघमेरु की स्तुति मूलम्- गुण-रयणुज्जलकडयं, सीलसुगंधितव-मंडिउद्देसं । सुय-बारसंग-सिहरं, संघमहामन्दरं वंदे ॥ १८ ॥ छाया- गुणरत्नोज्ज्वल-कटकं, शीलसगंधितपोमण्डितोहेशं । श्रुतद्वादशांग-शिखरं, संघमहामन्दरं वन्दे ॥ १८ ॥ __पदार्थ-गुणरयणुज्ज्लकडयं-ज्ञान-दर्शन-चारित्र गुणरूप रत्नों से संघमेरु का मध्यभाग समुज्ज्वल है, सीलसुगंधि-तवमंडिउद्देसं-जिसकी उपत्यकाएं पंचशील से सुरभित हैं और तप से सुशोभित हैं। सुयबारसंगसिहरं-द्वादशांग श्रुतरूप ही जिसका शिखर है, ऐसे विशेषणों से युक्त, संघमहामंदरं वंदे-संघ महामन्दरगिरि को मैं वन्दन करता हूं। भावार्थ-सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप अनुपम गुणरत्नों से संघमेरु का मध्यभाग समुज्ज्वल है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन्हें शील कहते हैं। संघमेरु की उपत्यकाएं शील की सुगंध से सुगंधित हैं और वे तप से सुशोभित हो रही हैं। द्वादशांगश्रुत ही उत्तुंग शिखर है, अन्य संघ से अतिशयवान संघमहामन्दर को मैं अभिवन्दन करता हूं। टीका-इस गाथा में संघमेरु को शेष उपमाओं से उपमित किया गया है। जिसकी उपत्यका उज्ज्वल गुणरत्नों से प्रकाशित हो रही है तथा शीलसुगन्धि से सुवासित और तप से सुसज्जित हो रही है। उपत्यका के स्थानीय श्रीसंघ के आसपास रहने वाले मार्गानुसारी जीव हैं। द्वादशांग गणिपिटक रूपी श्रुत-ज्ञान ही जिस श्रीसंघमेरु का शिखर है, ऐसे महामंदर को मैं वंदना करता हूं। इस गाथा में गुण, शील, तप और श्रुत ये चार गुण ही संघमहामेरु को पूज्य बना रहे हैं। यहां गुण शब्द से मूलगुण और उत्तरगुण जानने चाहिएं। शील शब्द से सदाचार, तप शब्द से 12 प्रकार का तप जानना चाहिए तथा श्रुतवाद से आध्यात्मिक श्रुत, ये ही संघमेरु की विशेषताएं हैं। संघ-स्तुति विषयक उपसंहार मूलम्- नगर-रह-चक्क-पउमे, चंदे-सूरे-समुद्द-मेरुम्मि । जो उवमिज्जइ सययं, तं संघ-गुणायरं वंदे ॥ १९ ॥ * 139*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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