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संवरवरजलपगलिय-इत्यादि गाथा में दिए गए पदों का आशय है-पांच आश्रवों के निरोध को संवर कहते हैं, वह संवर कर्ममल को धोने के लिए विशुद्ध जल है। जिसके सेवन करने से सांसारिक तृष्णाएं सदा के लिए शांत हो जाती हैं। ऐसे विशुद्ध जल के झरने जहां निरन्तर बह रहे हैं। वे झरने मानों श्रीसंघमेरु के गले को सुशोभित करने के लिए हार बने हुए हैं। स्तुतिकार ने गाथा में-सावगजणपउररवन्तमोरनच्चंतकुहरस्स-यह पद दिया है, वृत्तिकार ने इस पद का आशय निम्नलिखित रूप से व्यक्त किया है___"श्रावकजना एव स्तुति-स्तोत्र-स्वाध्याय-विधान-मुखरतया प्रचुरा रवन्तो मयूरास्तैर्नृत्यन्तीव कुहराणि व्याख्यानशालासु यस्य स तथा तस्या"
इसका भाव यह है, जैसे मेरु की कन्दराओं में मेघ की गम्भीर गर्जना को सुनकर प्रसन्नचित्त मोर नाच उठते हैं, वैसे ही श्रावक लोग व्याख्यानशालाओं में जिनवाणी के गम्भीर एवं मधुर घोष को सुनकर प्रसन्नचित्त से स्तुति-स्तोत्र, पाठ-जाप, स्वाध्याय करते हुए मस्ती में झूमते हैं, मानो नृत्य की भांति अपने अन्तर्गत प्रसन्न भावों को प्रकट कर रहे हों। न कि मोर की तरह सचमुच नाचते हैं। इस गाथा में उपमा अलंकार से उक्त विषय को प्रकट किया
विनय-नय-पवरमुणिवर-इत्यादि इस पद का अर्थ है-विनयधर्म और विविध नय-सरणि रूप दामिनी की चमचमाहट से श्रीसंघमेरु जगमगा रहा है। शिखर के तुल्य प्रमुख मुनिवर तथा आचार्य आदि समझने चाहिएं।
विविहगुण-कप्परुक्खग-फलभरकुसुमाउलवणस्स-अर्थात् जो मुनिवर मूलोत्तर गुणों से सम्पन्न हैं, वे कल्पवृक्ष के तुल्य हैं। क्योंकि वे सुख के हेतु तथा धर्मफल के देने वाले हैं तथा नाना प्रकार के योगजन्य लब्धिरूप सुपारिजात पुष्पों से व्याप्त हैं। गच्छ नन्दनवन के तुल्य हैं। इस प्रकार अपनी अलौकिक कांति से श्रीसंघसुमेरु देदीप्यमान हो रहा है। ____नाणवर-रयणदिप्पंत इत्यादि-इस गाथा में यह बताया है कि मेरुपर्वत की चूलिका वैडूर्य रत्नमयी है, जो कि अत्यन्त स्वच्छ एवं निर्मल है, श्रीसंघमेरु की चूलिका भी अत्यन्त स्वच्छ एवं निर्मल सम्यग्ज्ञान आदि रत्नों से सुशोभित हो रही है।
"संघमन्दरपक्षे तु कान्ता भव्यजनमनोहारित्वाद् विमला, यथावस्थित जीवादि पदार्थ स्वरूपोपलंभात्मकत्वात्"-अतः संघमेरु वंद्य एवं स्तुत्य है। इस गाथा में वंदामि और विणय-पणओ ये दो पद देकर स्तुतिकार ने श्रीसंघमेरु का माहात्म्य दिखाया है।
मेरुपर्वत अचल होने से कल्पान्तकाल के महावात से भी कम्पित नहीं होता, श्रीसंघमेरु भी मिथ्यादृष्टियों के द्वारा दिए गए प्राणान्त परीषह-उपसर्गों से कभी भी विचलित नहीं होता। पर्वत प्रायः दूर से ही रम्य प्रतीत होते हैं। जब कि मेरु ने इस उक्ति को निराधार प्रमाणित किया
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