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________________ प्रक्षालन करने में समर्थ ऐसे संवरजल के निरन्तर प्रवहमान प्रशम आदि विचारधारा अथवा संवर जल के सातत्य रूप से प्रवहमान झरने ही शोभायमान हार हैं। श्रावकजन मयूर मस्ती में झूमते हुए अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इनके गुणग्राम, स्तुति-स्तोत्र, स्वाध्याय आदि मधुर शब्द कर रहे हैं, उन शब्दों से व्याख्यानशालारूप कुहर (लतावितान) मुखरित हो रहे हैं। विनय से नम्र उत्तम मुनिवर चमकते हुए संयम यशःकीर्तिरूप दामिनी से आचार्य उपाध्यायरूप शिखर सुशोभित हो रहे हैं। नाना प्रकार के विनय-संयम-तप गुणों से युक्त मुनिवर ही कल्पवृक्ष हैं, सुख के हेतु धर्मरूप फलों के देने वाले और नाना प्रकार की ऋद्धि-रूप कुसुमों से सम्पन्न ऐसे मुनिवरों से गच्छरूप वन परिव्याप्त हैं। ___ परम सुख का हेतु होने के कारण ज्ञानरूप रत्न ही जिसमें श्रेष्ठरत्न है, वह ज्ञान ही देदीप्यमान, मनोहारी निर्मल वैडूर्यमय चूल (चूलिका) है, उपर्युक्त अतिशयों से समृद्ध संघ महामेरु गिरि को या उसके दिव्य माहात्म्य को विनय से प्रणत होता हुआ मैं नमस्कार करता हूँ। यहां द्वितीया अर्थ में षष्ठी का प्रयोग किया हुआ है। __टीका-इन गाथाओं में स्तुतिकार ने श्रीसंघ को मेरुपर्वत से उपमित किया है। जिसका विस्तृत वर्णन पदार्थ में तथा भावार्थ में लिखा जा चुका है, किन्तु यहां विशिष्ट शब्दों पर ही विचार करना है। जैन साहित्य, वैदिक साहित्य एवं बौद्ध साहित्य में मेरुपर्वत और नन्दनवन का उल्लेख मिलता है। वर्णन-शैली यद्यपि नि:संदेह भिन्न-भिन्न है तदपि उनकी महिमा और नामों में कोई अन्तर नहीं है, इस विषय में तीनों परम्पराएं समन्वित हैं। मेरुपर्वत इस जम्बूद्वीप के ठीक मध्यभाग में अवस्थित है जोकि एक हजार योजन गहरा, निन्यानवें हजार योजन ऊंचा है। मूल में उसका व्यास दस हजार योजन है। उस पर क्रमशः चार वन हैं, जिनके नाम-भद्रशाल, सौमनस, नन्दनवन और पाण्डुकवन हैं। उसमें रजतमय, स्वर्णमय और विविध रत्नमय ये तीन कण्डक हैं। चालीस योजन की चूलिका है। यह पर्वत विश्व में सब पर्वतों से ऊंचा है, उसमें जो-जो विशेषताएं हैं, अब उनका वर्णन करते हैं___ मेरुपर्वत की वज्रमय पीठिका है, स्वर्णमय मेखला है, कनकमय अनेक शिलाएं हैं, चमकते हुए उज्ज्वल ऊंचे-ऊंचे कूट हैं, नन्दनवन सब वनों से विलक्षण एवं मनोहारी है, वह अनेक कन्दराओं से सुशोभित है, और कन्दराएं मृगेन्द्रों से आकीर्ण हैं। वह पर्वत विविध प्रकार के धातुओं से परिपूर्ण है, विशिष्ट रत्नों का स्रोत है, विविध औषधियों से व्याप्त है। कुहरों में हर्षान्वित हो मयूर नृत्य करते हैं। केकारव से वे कुहरें गुंजायमान हो रही हैं, ऊंचे-ऊंचे शिखरों पर दामिनी दमक रही है, वनविभाग विविध कल्पवृक्षों से सुशोभित है जोकि फल और फूलों से अलंकृत हो रहे हैं। सब से ऊपरी भाग में चूलिका है, वह अपनी अनुपम छटा से मानों स्वर्गीय देवताओं को भी अपनी ओर आह्वान कर रही हो, इत्यादि विशेषताओं से * 136*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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