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निर्झर-प्रवाह ही शोभायमान हार है। सावगजणपउररवंतमोरनच्चंतकुहरस्स-उस संघमेरु के धर्मस्थानरूप क्रुहर प्रचुर आनन्द विभोर श्रावक जन मयूरों के परमेष्ठी की स्तुति व स्वाध्याय के मधुर शब्दों से गुंजायमान हैं।
विणयमय-प्पवरमुणिवरफुरतविज्जुज्जलंतसिहरस्स-विनय से विनम्र या विनय और नय में प्रवीण प्रवर मुनिवर तथा संयम यशः कीर्तिरूप दामिनी की चमक से संघमेरु के आचार्य-उपाध्याय रूप शिखर सुशोभित हो रहे हैं। विविह गुणकप्प-रुक्खग-फलभरकुसुमाउलवणस्स-संघमेरु में विविध मूलगुण तथा उत्तर गुण सम्पन्न मुनिवर ही कल्पवृक्ष हैं, वे धर्मरूप फलों से लदे हुए हैं और ऋद्धि-रूप पुष्पों से सम्पन्न, ऐसे मुनियों से गच्छरूप वन व्याप्त है। . __नाणवररयण-दिप्पंतकंतवेरुलिय-विमलचूलस्स-सम्यग्ज्ञानरूप श्रेष्ठरत्न ही, देदीप्यमान मनोहर विमल वैडूर्यमयी चूलिका है। वंदामि विणयपणओ संघ-महामंदर-गिरिस्स -उस चतुर्विध संघरूप महामन्दर गिरि के माहात्म्य को विनय से प्रणत मैं (देववाचक) वन्दन करता हूं। ___ भावार्थ-संघमेरु की भूपीठिका सम्यग्दर्शनरूप श्रेष्ठ वज्रमयी है, तत्त्वार्थ-श्रद्धान मोक्ष का प्रथम अंग होने से सम्यग्दर्शन ही आधार-शिला है जो कि दृढ़ है, उसमें शंका आदि दूषणरूप विवरों का अभाव है। जो प्रति समय विशुध्यमान अध्यवसायों से चिरंतन है, तीव्र तत्त्व-विषयक रुचि होने से ठोस है, सम्यग्बोध होने से जीव आदि नव तत्त्व षड्द्रव्यों में निमग्न होने से गहरा है। उत्तरगुणरूप रत्न हैं और मूलगुण स्वर्णमेखला है। उत्तरगुण के बिना मूलगुण इतने सुशोभित नहीं होते, अतः उत्तरगुण ही रत्न हैं, उनसे खचित मूलगुणरूप सुवर्णमेखला है, उससे संघमेरु मंडित है।
इन्द्रिय और नोइन्द्रिय (मन) दमनरूप समुज्ज्वल कनक शिलातल हैं, उन पर अशुभ अध्यवसायों के परित्याग से प्रतिसमय कर्ममल के धुलने से तथा उत्तरोत्तर सूत्रार्थ के स्मरण करने से उदात्तचित्त ही प्रोन्नत कूट हैं। सन्तोषरूप मनोहर नन्दनवन है जोकि विशुद्ध चारित्र की सुरभिगंध से आपूर्ण (व्याप्त) हो रहा है।
स्व-पर कल्याणरूप प्राणियों की दया ही सुन्दर कन्दराएं हैं, वे कन्दराएं कर्म-शत्रुओं का पराभव करने वाले तथा परवादी मृगों पर विजय प्राप्त दुर्धर्ष तेजस्वी मुनिवर सिंहों से आकीर्ण हैं और कुबुद्धि के निरास से सैंकड़ों अन्वय-व्यतिरेक हेतु रूप धातुओं से संघमेरु भास्वर है तथा विशिष्ट क्षयोपशमजन्य आमर्ष आदि लब्धिरूप चन्द्रकान्त आदि रत्नों से तथा श्रुतरत्नों से जिसकी व्याख्यानशालारूप गुहाएं जाज्वल्यमान हो रही हैं।
हिंसा, झूठ, चौर्य, मैथुन और परिग्रह अथवा मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय, प्रमाद, अशुभ योग इन्हें आश्रव कहते हैं, आश्रवों का निरोधरूप श्रेष्ठ स्वच्छजल कर्ममल
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