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________________ विषय-कषाय आदि प्रभावित नहीं कर सकते। अतः साधक जीवों को चतुर्विध श्रीसंघसूर्य से दूर नहीं रहना चाहिए। फिर अविद्या, अज्ञानता, मिथ्यात्व का अंधकार जीवन को कभी भी प्रभावित नहीं कर सकता। अतः यह संघ-सूर्य कल्याण करने वाला है। संघसमुद्र-स्तुति मूलम्- भई धिइ-वेला-परिगयस्स, सज्झाय-जोग-मगरस्स।.. अक्खोहस्स भगवओ, संघ-समुदस्स रुंदस्स ॥ ११ ॥ छाया- भद्रं धृति-वेलापरिगतस्य, स्वाध्याय-योग-मकरस्य । अक्षोभस्य भगवतः, संघसमुद्रस्य रुन्दस्य ॥ ११ ॥ पदार्थ-धिइ-वेलापरिगयस्स-जो धृति-मूलगुण तथा उत्तरगुण विषयक वर्द्धमान आत्मिक परिणाम रूप वेला से घिरा हुआ है, सज्झाय-जोग-मगरस्स-स्वाध्याय तथा शुभयोग जहां मगर हैं, अक्खोहस्स-परीषह और उपसर्गों से जो अक्षुब्ध है, रुंदस्स-सब प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त तथा विस्तृत है, ऐसे, संघसमुद्दस्स भगवओ-संघ-समुद्र भगवान का, भदं-कल्याण हो। ___ भावार्थ-जो मूलगुण और उत्तरगुणों के विषय में बढ़ते हुए आत्मिक परिणाम रूप जलवृद्धि वेला से व्याप्त है, जिसमें स्वाध्याय और शुभयोग रूप कर्मविदारण करने में महाशक्ति वाले मकर हैं, जो परीषह-उपसर्ग होने पर भी निष्प्रकम्प है तथा समग्र ऐश्वर्य से सम्पन्न एवं अतिविस्तृत है, ऐसे संघ-समुद्र का भद्र हो। ___टीका-इस गाथा में श्री संघ को समुद्र से उपमित किया है, जलवृद्धि से समुद्र में निरन्तर लहरें बढ़ती ही रहती हैं, उसमें मच्छ-कच्छप, मगर, ग्राह, नक्र आदि जल-जन्तु भी रहते हैं फिर भी वह अपनी मर्यादा में ही रहता है। वह महावात से क्षुब्ध होकर कभी भी वेला का उल्लंघन नहीं करता। वह अनेक प्रकार के रत्नों से रत्नाकर कहलाता है, सब जलाशयों में वह महान् होता है तथा जो नियत समय और तिथियों में चन्द्रमा की ओर बढ़ता है। वह गहराई से गम्भीर होता है, उसमें सहस्रशः नदियों का समावेश हो जाता है और जल सदैव शीत ही रहता है। श्रीसंघ भी समुद्र के तुल्य ही है क्योंकि चतुर्विध श्रीसंघ में श्रद्धा, धृति, संवेग, निर्वेद, उत्साह की लहरें बढ़ती ही रहती हैं अर्थात् मूलगुण-उत्तरगुणरूप जो आत्मा के शुद्धपरिणाम हैं, उनसे सदा वर्धमान है। समुद्र में मगरमच्छादि अन्य जीवों का संहार करते हैं, श्रीसंघ भी स्वाध्याय से कर्मों का संहार करता रहता है, समुद्र महावात से भी क्षुब्ध नहीं होता, श्रीसंघ भी अनेक परीषह-उपसर्गों के होने पर भी लक्ष्यबिन्दु से विचलित नहीं होता। समुद्र में विविध रत्न हैं, श्रीसंघ में अनेक प्रकार के संयमी रत्न हैं। समुद्र अपनी मर्यादा में रहता है, * 132*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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