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श्रीसंघ संयम की मर्यादा में रहता है। समुद्र महान् होता है, श्रीसंघ आत्मिक गुणों से महान् है। समुद्र चन्द्रमा की ओर बढ़ता है, श्रीसंघ मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। समुद्र अथाह जल से गम्भीर है, श्रीसंघ अनन्तगुणों से गम्भीर है। समुद्र में सब नदियों का समावेश होता है-विश्व में जितने दर्शन एवं पंथ व सम्प्रदाय हैं, उनमें जो अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय एवं अपरिग्रह, क्षमा, नम्रता, ऋजुता, निर्लोभता है, इन सबका अन्तर्भाव श्रीसंघ में हो जाता है। जिसमें सदा-सर्वदा शांतरस का ही अनुभव किया जाता है, ऐसे भगवान् श्रीसंघ-समुद्र का कल्याण हो। इस गाथा में संघसमुद्र को भगवान कहा है। जैसे कि-भगवओ संघसमुदस्स रुंदस्स-इस कथन से यह सिद्ध होता है कि श्रीसंघ में श्रद्धा-विनय करने से भगवदाज्ञा का पालन होता है। श्रीसंघ की आशातना भगवान की आशातना है और श्रीसंघ की सेवा-भक्ति करना भगवान की सेवा है। श्रीसंघ की हीलना-निन्दना तथा अवर्णवाद करने से अनन्त संसार की वृद्धि होती है और दर्शन-मोह का बंध होता है। अतः श्रीसंघ का आदर-सत्कार भगवान की तरह ही करना चाहिए।
संघ-महामन्दर-स्तुति मूलम्-सम्मइंसण-वरवइर, दढ-रूढ-गाढावगाढपेढस्स ।
धम्म-वररयणमंडिय, चामीयरमेहलागस्स ॥ १२ ॥ नियमूसियकणय, सिलायलुज्जलजलंतचित्तकूडस्स । नंदणवण-मणहर-सुरभि, सील-गंधुद्धमायस्स ॥ १३ ॥ जीवदया - सुन्दर-कंदरुद्दरिय, मुणिवर - मइंदइन्नस्स । हेउसय-धाउ-पगलंत, रयणदित्तोसहिगुहस्स ॥ १४ ॥ संवरवर-जलपगलिय, उज्झर-पविरायमाणहारस्स । सावगजण-पउररवंत, मोर-नच्चंतकुहरस्स ॥ १५ ॥ विणय-नय-प्पवरमुणिवर, फुरंत-विज्जुज्जलंतसिहरस्स । विविह-गुण-कप्परुक्खग, फलभर-कुसुमाउलवणस्स ॥१६॥ नाणवर-रयणदिप्पंत - कंत-वेरुलिय-विमलचूलस्स । वंदामि विणय-पणओ, संघ-महामंदरगिरिस्स ॥ १७ ॥
1. केवलि-श्रुत-संघ-धर्म-देवावर्णवादो दर्शनमोहस्य !-तत्त्वार्थ सूत्र अ. 6 सू. 14 ।
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