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________________ छाया-तपःसंयममृगलाञ्छन ! अक्रियराहुमुखदुधृष्य ! नित्यम् । ": जय संघचन्द्र ! निर्मल-सम्यक्त्व-विशुद्धज्योत्स्नाक ! ॥९॥ पदार्थ-तवसंजम-मयलंछण-जिसके तप-संयम ही मृगचिन्ह हैं, अकिरियराहुमुहदुद्धरिस-अक्रियावाद अर्थात् नास्तिकवाद रूप राहुमुख से सदैव दुर्द्धर्ष है, निम्मल सम्मत्त विसुद्धजोण्हागा-निर्मल सम्यक्त्व रूप स्वच्छ चांदनी वाले, संघचन्द-हे संघचन्द्र! निच्चं जय-सर्वकाल अतिशयवान् हो। भावार्थ-हे तप प्रधान संयम रूप मृगलांछन वाले ! जिन-प्रवचन चंद्र को ग्रसने में परायण अक्रियावादी ऐसे राहुमुख से सदा दुष्प्रधृष्य ! निरतिचार सम्यक्त्व रूप स्वच्छ चांदनी वाले हे संघचन्द्र ! आप सदा जय को प्राप्त हों अर्थात् अन्यदर्शनियों से अतिशयवान हों। संघ-चन्द्र कलंक-पंक से रहित है जिस पर कभी ग्रहण नहीं लगता। टीका-इस गाथा में श्रीसंघ को चन्द्र की उपमा से अलंकृत किया गया है, जैसे कि तवसंजम-मयलंछण-जैसे चन्द्र मृगचिन्ह से अंकित है, वैसे ही श्रीसंघ भी तप-संयम से अंकित है। जैसे चन्द्र तीन काल में भी उस मृगचिन्ह से अलग नहीं हो सकता, वैसे ही श्रीसंघ भी तप-संयम से कदाचिद् भी पृथक नहीं हो सकता। अकिरिय-राहुमुहदुद्धरिस-इस पद से यह ध्वनित होता है-इस श्रीसंघ-चन्द्र को नास्तिक, चार्वाक, मिथ्यादृष्टि, एकान्तवादियों का राहु कदाचिदपि ग्रस नहीं सकता। बादल, कुहरा तथा आंधी, ये सब किसी भी प्रकार से मलिन नहीं कर सकते। अतः यह संघचन्द्र गगनचन्द्र से विशिष्ट महत्व रखता है। निम्मल-सम्मत्त-विसुद्धजोण्हागा-श्रीसंघचन्द्र, मिथ्यात्व-मल से रहित, स्वच्छ, निर्मल सम्यक्त्वरूपी चांदनी वाला है, जिसकी ज्योत्स्ना दिग्दिगन्तर में व्याप्त है, जोकि अविवेकी, अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि चोरों को अच्छी नहीं लगती। इसलिए हे निर्मल सम्यक्त्व-ज्योत्स्नायुक्त चन्द्र ! आपकी सदा जय-विजय हो। इस गाथा में 'जय' और 'निच्च' ये दो पद विशेष महत्व रखते हैं। जैसे चन्द्रमा असंख्य ग्रह, नक्षत्र और तारों में सदाकाल ही अतिशयी एवं जयवन्त होता है, वैसे ही श्रीसंघ चांद भी अन्य यूथिकों से सदैव अपना विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण अस्तित्व रखता है। अतएव जयवन्त है। जैसे चन्द्र सदैव सौम्य रहता है, वैसे ही श्रीसंघ भी सदा सर्वदा सौम्य है। इसी कारण जयवन्त है। चन्द्र सौम्य-गुणयुक्त है और उसका विमान मृगचिन्ह से अंकित है, इसका उल्लेख आगम में निम्नलिखित है- “से केणद्वेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ चन्दे ससी चन्दे ससी ? गोयमा ! चन्दस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो मियंके विमाणे, कंता देवा, कंताओ देवीओ, कंताई आसण-सयण-खंभ-भण्ड-मत्तोवगरणाई, अप्पणो वि य णं - * 129 *
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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