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पद्म-अनिष्टकर्मरज तथा काम-भोगों से अलिप्त, संसार जलौघ से बाहर उत्तम गुण स्थानों में रहता है। पद्मवर सहस्र पत्रों वाला होता है, श्रीसंघ पद्म श्रमणगण रूप सहस्र पत्रों से सुशोभित है। इत्यादि गुणोपेत श्रीसंघ-पद्म का कल्याण हो। गुणकेसरालस्स-इस पद में 'मतुप्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'आल' प्रत्यय ग्रहण किया गया है, कहा भी हैमतुवत्थम्मि मुणिज्जइ आलं इल्लं मणं तह य-आचार्य हेमचन्द्र कृत प्राकृत-व्याकरण में आल्विल्लोल्लालवन्त मन्तेत्तरमणा मतोः, ८।२।१५९ । इस सूत्र से 'आल' प्रत्यय जोड़ . देने से 'गुणकेसराल' शब्द बनता है।
श्रावक किसे कहते हैं ? जो प्रतिदिन श्रमण निर्ग्रन्थों के दर्शन करता है और उनके मुखारविन्द से श्रद्धापूर्वक जिनवाणी को सुनता है, उसे श्रावक कहते हैं, जैसे कि कहा भी है
___ "संपत्त दंसणाइ पइदिवहं, जइजण सुणेइ य । - समायारि परमं जो, खलु तं सावगं बिन्ति ॥" ... .. जिणसूरतेयबुद्धस्स-वृत्तिकार ने इस पद की व्याख्या निम्नलिखित की है-जिन एव सकलजगत्प्रकाशकतया सूर्य इव भास्कर इव जिनसूर्यस्तस्य तेजो संवेदनप्रभवा धर्मदेशना तेन बुद्धस्य।
गाथा में श्रमण शब्द आया है जिस का अर्थ होता है, श्राम्यन्तीति श्रमणा नन्द्यादिभ्योऽनः ४।३।८६ ॥ इस सूत्र से कर्त्ता में 'अन' प्रत्यय हुआ। जिस दिन से साधकं मोक्षमार्ग का पथिक होने के लिए दीक्षित होता है, उसी क्षण से लेकर पूर्णतया सावध योग से निवृत्ति पाकर अपना जीवन संयम और तप से यापन करता है, जिसका जीवन समाज के लिए भाररूप नहीं है, जो बाह्य और आन्तरिक तप में अपने आपको सन्तुलित रखता है। 'ज़र जोरू जमीन' के त्याग के साथ-साथ विषय-कषायों से भी अपने को पृथक् रखता है वह 'श्रमण' कहलाता है, जैसे कि कहा भी है
“यः समः सर्वभूतेषु, त्रसेष स्थावरेष च ।
तपश्चरति शुद्धात्मा श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः ॥" पद्म में सौन्दर्य, सौरभ्य, अलिप्तता और मकरन्द ये विशिष्टगुण पाए जाते हैं। श्रीसंघपद्म में मूलगुण, उत्तरगुण, अनासक्ति, आध्यात्मिकरस, जिनवाणी के श्रवण-मनन चिन्तन अनुप्रेक्षा, निदिध्यासनजन्य आनन्द, ये विशिष्ट गुण हैं। इस प्रकार संघ-पद्मवर विश्व में अनुपम है। जिसकी सुगन्ध तीन लोक में व्याप्त है।
संघचन्द्र-स्तुति मूलम्- तवसंजम-मयलंछण ! अकिरियराहुमुहदुद्धरिस ! निच्चं । जय संघचन्द ! निम्मल-सम्मत्तविसुद्धजोण्हागा ! ॥ ९ ॥
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