SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सावग-जण-महुअरिपरिवुडस्स, जिणसूरतेयबुद्धस्स। संघपउमस्स भदं, समणगण-सहस्स-पत्तस्स ॥ ८ ॥ छाया- करजो-जलौघ-विनिर्गतस्य, श्रुतरत्न-दीर्घ-नालस्य । पञ्च-महाव्रत-स्थिर-कर्णिकस्य, गुणकेसरवतः ॥ ७ ॥ श्रावकजन-मधुकरि-परिवृतस्य, जिन-सूर्य-तेजो-बुद्धस्य । संघ-पद्मस्य भद्रं, श्रमण-गण-सहस्र-पत्रस्य ॥ ८ ॥ पदार्थ-कम्मरय-जलोह-विणिग्गयस्स-जो संघपद्म कर्मरूप रज तथा जल-प्रवाह से बाहर निकला हुआ है, सुयरयण-दीहनालस्स-जिसकी श्रुतरत्नमय लंबी नाल है, पंच महव्वय थिरकन्नियस्स-जिसकी पांच महाव्रत ही स्थिर कर्णिकाएं हैं, गुणकेसरालस्सउत्तरगुण-क्षमा-मार्दव-आर्जव-संतोष आदि जिस के पराग हैं, सावग-जण-महुअरिपरिवुडस्स-जो संघपद्म सुश्रावक जन-भ्रमरों से परिवृत्त-घिरा हुआ है, जिणसूर-तेयबुद्धस्सजो तीर्थंकर रूप सूर्य के केवलज्ञानालोक से विकसित है, समणगणसहस्सपत्तस्स-श्रमण समूह रूप हजार पत्र वाले, संघपउमस्स भदं-इस प्रकार के विशेषणों से युक्त उस संघपद्म का भद्र हो। .. भावार्थ-जो संघपद्म कर्मरज-कर्दम तथा जल-प्रवाह दोनों के बाहर निकला हुआ है-अलिप्त है। जिस का आधार ही श्रुत-रत्नमय लम्बी नाल है, पांच महाव्रत ही जिसकी दृढ़ कर्णिकाएं हैं। उत्तरगुण ही जिसके पराग हैं, श्रावकजन-भ्रमरों से जो सेवित तथा घिरा हुआ है। तीर्थंकरसूर्य के केवलज्ञान के तेज से विकास पाए हुए और श्रमण गण रूप हजार पंखुड़ी वाले उस संघपद्म का सदा कल्याण हो। दीका-उक्त दोनों गाथाओं में श्रीसंघ को पद्मवर से उपमित किया है। पद्मवर सरोवर की शोभा बढ़ाने वाला होता है, श्रीसंघ भी मनुष्यलोक की शोभा बढ़ाता है। पद्मवर दीर्घनाल वाला होता है, श्रीसंघ श्रुतरत्न दीर्घनाल युक्त है। पद्म स्थिरकर्णिका वाला होता है तो श्रीसंघ पद्म भी पञ्चमहाव्रत रूप स्थिर कर्णिका वाला है। पद्म सौरभ्य, पीतपराग तथा मकरन्द के कारण भ्रमर समूह से सेव्य होता है, श्रीसंघ पद्म-मूलगुण सौरभ्य से, उत्तरगुण-पीतपराग से, आध्यात्मिक रस एवं धर्मप्रवचनजन्य आनन्दरस रूप मकरन्द से युक्त है। वह श्रावक भ्रमरों से परिवृत रहता है, विशिष्ट मुनिपुंगवों के मुखारविन्द से धर्म प्रवचनरूप मकरन्द का आकण्ठ पान करके आनन्द विभोर हो श्रावक-मधुकर के स्तुति के रूप में गुंजार कर रहे हैं। पद्म सूर्योदय के निमित्त से विकसित होता है तथा श्रीसंघपद्म तीर्थंकर-सूर्य भगवान् के निमित्त से पूर्णतया विकसित होता है। पद्म जल एवं कर्दम से सदा अलिप्त रहता है, श्रीसंघ * 127*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy