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फहरा रही हैं। जिस प्रकार रथ में 12 प्रकार के तूरी आदि के नन्दिघोष मांगलिक बाजे बजते रहते हैं। उसी प्रकार संघरथ में भी वाचना, पृच्छना, परावर्तना, धर्मकथा, अनुप्रेक्षा रूप स्वाध्याय के मंगल नन्दिघोष बाजे बज रहे हैं, उन्हें सुनकर मन आनन्द-विभोर हो जाता है, ऐसे संघरथ भगवान् का कल्याण हो। इस गाथा में सीलपडागूसियस्स की छाया बनती है-शीलोच्छ्रितपताकस्य-इस पद में उच्छ्रित शब्द पर निपात प्राकृत शैली से हुआ है। क्योंकि प्राकृत भाषा में विशेषण पूर्वापर निपात का नियम नहीं है। जैसे कि कहा भी है-“नहि प्राकृते विशेषणपूर्वापर-निपातनियमोऽस्ति, यथा कथंचित् पूर्वर्षिप्रणीतेषु वाक्येषु विशेषण-निपातदर्शनात्।' तथा किसी-किसी प्रति में 'सज्झायसुनेमिघोसस्स' इस प्रकार का भी पाठ है। इस का भाव यह है कि स्वाध्याय ही सुन्दर नेमिघोष है।
तवनियमतुरयजुत्तस्स इस पद का भाव यह है-शीलांगरथ के कथन से ही तप-नियम ये दोनों गुण आ जाते हैं। किन्तु फिर भी तप और नियम की प्रधानता बतलाने के लिए ही इनका पृथक् कथन किया है। क्योंकि सामान्य कथन करने पर भी प्रधानता दिखाने के लिए विशेष कथन किया जाता है, जैसे किसी ने कहा-'ब्राह्मण आ गए हैं, इससे सिद्ध हुआ कि अन्य लोग भी आ गए हैं। “यथा ब्राह्मणा आयाता वशिष्टोप्यायातः"।
तप शब्द से बारह प्रकार का तप जानना चाहिए। नियम शब्द से अभिग्रह विशेष अथवा कुछ समय के लिए इच्छाओं का रोकना तप है और आजीवन इच्छाओं का निरोध करना नियम है। अत: इन दोनों को स्तुतिकार ने अश्व की उपमा से उपमित किया है।
__ श्रीसंघ-रथ के ये दोनों तप-नियम अश्व रूप होने से मोक्ष पथ में शीघ्रता से गमन कर रहे हैं। ___संघरहस्स भगवओ-संघरथ भगवान् का भद्र हो। इस कथन से संघरथ ऐश्वर्ययुक्त होने से भगवान् शब्द से उपमित किया गया है। पताका, अश्व और नन्दिघोष, इन तीनों को क्रमश: शील, तप-नियम और स्वाध्याय से उपमित किया गया है। ___मोक्ष-पथ का जो राही हो, उसे नियमेन संघरथ पर आरूढ़ होना ही चाहिए। जब तक मंजिल दूर होती है तब तक उसे पाने के लिए राही ऐसे साधन का सहयोग लेता है जो कि शीघ्र, निर्विघ्न और आनन्दपूर्वक पहुंचा दे। मोक्ष में जाने के लिए भी सर्वोत्तम साधन श्रीसंघ रथ ही है। अत: श्रीसंघ के सदस्यों को चाहिए कि वे अपने कर्त्तव्य की ओर विशेष ध्यान
संघपद्म-स्तुति मूलम्-कम्मरय-जलोहविणिग्गयस्स, सुयरयण-दीहनालस्स। . पंच-महव्वय थिरकन्नियस्स, गुणकेसरालस्स ॥ ७ ॥
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