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________________ होने से ही लोकमात्र के गुरु हैं, जयइ महप्पा महावीरो-महात्मा महावीर अपने आत्मगुणों से सर्वोत्कृष्ट हैं; अतः जयवन्त हैं। भावार्थ-समस्त श्रुतज्ञान के मूलश्रोत, चालू अवसर्पिणीकाल के २४ तीर्थंकरों में सब से अन्तिम तीर्थंकर जो लोकमात्र के गुरु हैं। क्योंकि निःस्वार्थ भाव से हितशिक्षा देने वाले ही गुरु होते हैं। इन विशेषणों से सम्पन्न महात्मा महावीर सदा जयवन्त हैं। जिन्हें कोई विकार जीतना शेष नहीं रहा, वे ही जयवन्त हो सकते हैं। टीका.-इस गाथा में भगवान् महावीर की स्तुति की गई है। जितना भी द्रव्यश्रुत तथा भावश्रुत है, उसका उद्भव श्री महावीर से ही हुआ है। भगवान् महावीर ने 30 वर्ष तक केवलज्ञान की पर्याय में विचर कर जनता को जो धर्मोपदेश, संवाद और शिक्षाएं दीं, वे सब के सब श्रृतज्ञान के रूप में परिणत हो गए। श्रोताओं तथा जिज्ञासुओं में जैसा-जैसा क्षयोपशम था, वैसा-वैसा ही उनमें श्रुतज्ञान उत्पन्न हुआ। किन्तु उस श्रुतज्ञान के उत्पादक भगवान् महावीर स्वामी ही हैं। __ जो अन्ययूथिक के शास्त्रों में अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, तप, क्षमा, मार्दव, संतोष, आध्यात्मिकवाद इत्यादि आंशिक रूपेण धर्म और आस्तिकवाद दृष्टिगोचर होते हैं, वे सब भगवान् की दी हुई श्रुत ज्ञान की बूंदें हैं। जिस प्रकार महासमुद्र से वाष्प के रूप में उठा हुआ जल गगन-मण्डल में घूमता रहता है। कालान्तर में वही जल मेघ बनकर बरसने लग जाता है, उससे रूक्ष भूमि भी सरसब्ज हो जाती है। अथवा कुशाग्र में, पत्तों में तथा फूलों की पांखुड़ियों में जो प्रातः जल की बूंदें नजर आती हैं, उन बिन्दुओं का उद्भव स्थान महासमुद्र ही है। कहा भी है-हे भगवन् ! जो भी अन्य ग्रंथ-शास्त्रों में, दर्शनों में, सुभाषित सम्पदाएं सम्यग्दृष्टि के द्वारा प्रतीत होती हैं, वे सब वाक्य-बिन्दु आपके पूर्व-महार्णव से ही आये हुए हैं, इसमें जगत् ही प्रमाण है। एक स्तुतिकार ने बहुत सुन्दर शैली से भगवान् की स्तुति की है :-... “सुनिश्चितं नः परतंत्र-युक्तिषु, स्फुरन्ति याः काश्चन सूक्ति-सम्पदः। तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिता, जगत्प्रमाणं जिन ! वाक्यविपुषः ॥१॥" इस श्लोक का भावार्थ ऊपर दिया जा चुका है। अतः श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में भगवान् महावीर ही कारण हैं। कारण कि उनके उपदेश किए हुए अर्थ को लेकर ही सर्व शास्त्रों एवं आगमों की प्रवृत्ति हुई है। जैसे कि वृत्तिकार लिखते हैं-"श्रुतानां-स्वदर्शनानुगत-सकलशास्त्राणां प्रभवन्ति सर्वाणि शास्त्राण्यस्मादिति प्रभवः-प्रथममुत्पत्तिकारणं तदुपदिष्टमर्थमुपजीव्य सर्वेषां शास्त्राणां प्रवर्त्तनात्।" इस कथन से अपौरुषेयवाद का स्वयं खण्डन हो जाता है। स्तुतिकार ने भगवान् महावीर स्वामी के लिए विशेषण दिया हैतित्थयराणं अपच्छिमो-जो इस अवसर्पिणी काल में तीर्थंकरों में अन्तिम तीर्थंकर हुए। * 117 *
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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