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ततः सकलस्यापि प्राणिगणस्य पितृतुल्यः, तस्यापि च पिता भगवान् अर्थतस्तेन प्रणीतत्वात्, ततो भगवान् जगत्पितामहः।"
इस कथन से यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि सम्यग्दर्शनादि धर्म का यथार्थ उपदेशक होने से श्रीभगवान् जगत्पितामह कहे जाते हैं।
भयवं-यह शब्द भगवान् के अतिशय को सूचित करता है। क्योंकि 'भग' शब्द छह अर्थों में व्यवहृत होता है-समग्र ऐश्वर्य, त्रिलोकातिशायी रूप, त्रिलोकव्यापी यश, तीन लोक को चकाचौंध करने वाली श्री, अखण्ड धर्म और सम्पूर्ण प्रयत्न। ये सब जिसमें पूर्णतया पाए जाएं, उसे भगवान् कहते हैं। __भगवानिति भगः-समग्रैश्वर्यादिलक्षणः, आह च
"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः।
धर्मस्याथ प्रयत्नस्य षण्णां भग इतीङ्गना॥" ___ मतुप् प्रत्ययान्त होने से भगवान् शब्द बनता है। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि 'जयइ' क्रिया दो बार आने से पुनरुक्ति दोष क्यों न माना जाए ? ___ इसका समाधान यह है कि स्वाध्याय, ध्यान, तप, औषध, उपदेश, स्तुति, दान और सद्गुणोत्कीर्तन, इनमें पुनरुक्ति का दोष नहीं माना जाता, जैसे कि कहा भी है
"सज्झाय, झाण, तव ओसहेसु उवएस-थुइ-पयाणेसु ।
संतगुणकित्तणेसु यन्न होंति पुणरुत्तदोसा उ ॥" उपर्युक्त अर्थों में पुनरुक्त दोष नहीं होता। इस प्रकार इस गाथा में आए हुए पदों के अर्थों को हृदयंगम करना चाहिए। इस गाथा में आस्तिकवाद, जीवसत्ता, सर्वज्ञवाद इत्यादि विषय वर्णन किए गए हैं। इन वादों का विस्तृत वर्णन जिज्ञासुगण मलयगिरिसूरिजी की वृत्ति में देख सकते हैं।
महावीर-स्तुति मूलम्- जयइ सुआणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ ।
जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो ॥ २ ॥ छाया- जयति श्रुतानां प्रभवः, तीर्थंकराणामपश्चिमो जयति ।
जयति गुरुर्लोकानां, जयति महात्मा महावीरः ॥ २ ॥ पदार्थ-जयइ सुआणं पभवो-समग्र श्रुतज्ञान के मूलस्रोत जयवन्त हैं, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ-24 तीर्थंकरों में अन्तिम तीर्थंकर जयशील हैं, जयइ गुरू लोगाणं-जयवन्त
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