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________________ जगाणंदो-इस पद से संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों का ग्रहण किया है जो श्री अरिहन्त भगवान् के दर्शन करते हैं, उपदेश सुनते हैं, वे समनस्क-जीव परमानन्द को प्राप्त होते हैं, उनकी अतीक प्रसन्नता में अरिहन्त भगवान् निमित्त हैं, जगत् नैमित्तिक है। क्योंकि जगत् भगवान के दर्शन और उपदेश से आनन्द विभोर हो रहा है। अतः कारण में कार्य का उपचार करके जगदानन्द निमित्तरूप अरिहन्त भगवान् का विशेषण बन गया है। जैसे कि कहा भी है- “जगतां-संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणाममृतस्यन्दिमूर्तिदर्शनमात्रतो निःश्रेयसाभ्युदयसाधकधर्मोपदेशद्वारेण चानन्दहेतुत्वादैहिकामुष्मिकप्रमोद-कारणत्वाज्जगदानन्दः।" जगणाहो-इस विशेषण से सर्व जीवों का योग-क्षेमकारी होने से श्री भगवान् का नाम जगन्नाथ कहा जाता है। क्योंकि अप्राप्त का प्राप्त करना 'योग' कहलाता है और प्राप्त की रक्षा करना क्षेम'। इस दृष्टि से जिस में दोनों गुण हों, उसे नाथ कहते हैं। देवाधिदेव के निमित्त से भव्य प्राणी मिथ्यात्व के गाढ अन्धकार से निकलकर सन्मार्ग पर आते हैं और जो सन्मार्ग से स्खलित हो रहे हैं, उन्हें धर्म में स्थिर करते हैं, जैसे कि कहा भी है “जगन्नाथ इहजगच्छब्देन सकलचराचरपरिग्रहः नाथशब्देन च योगक्षेमकृदभिधीयते, 'योग-क्षेमकृद् नाथ' इति विद्वत्प्रवादात्, ततश्च जगतः-सकलचराचरस्वरूपस्य यथावस्थित-स्वरूप- प्ररूपणा द्वारेण वितथप्ररूपणापायेभ्यः पालनाच्च नाथ इव नाथो जगन्नाथः।" जगबन्धू-अरिहन्तदेव अहिंसा के उपदेशक हैं, क्योंकि वे एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी प्राणी, जीव, सत्व की स्वयं रक्षा करते हैं और इनका हनन मत करो, ऐसा उपदेश करते हैं। अत: वे सहोदर बन्धु की तरह जगबन्धु कहे जाते हैं। जैसे कि कहा है- “जगत:सकलप्राणिसमुदायरूपस्याव्यापादनोपदेशप्रणयनेन सुखस्थापकत्वाबन्धुरिव बन्धुर्जगद्बन्धुः, तथा चाचारसूत्रं- “सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अज्जावियव्वा, न परिघेत्तव्वा, न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे, धुवे, निए, सासए, समेच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए।" जगप्पियामहो-धर्म पितृतुल्य जगत् की रक्षा करता है। अत: धर्म जगत् का पिता है। उस धर्म का प्रभव अरिहन्तदेव से हुआ है। अत: सिद्ध हुआ, अरिहन्तदेव जगत्पितामह हैं। जो दुर्गति में गिरते हुए प्राणियों को सुगति में स्थापित करता है, उसी को धर्म कहते हैं। वह धर्म, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप है। जैसे कि कहा भी है- सम्यग्दर्शनमूलोत्तरगुणसंहतिस्वरूपो धर्मः, स हि दुर्गतौप्रपततो जन्तून् रक्षति, शुभे च निःश्रेयसादौ स्थाने स्थापयति, तथाचोक्तं निरुक्तिशास्त्रवेदिभिः "दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून, यस्माद् धारयते ततः। धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद् धर्म इति स्मृतः ॥" - * 115
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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