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देकर जिन भगवान् की स्तुति की है। जिन विशेषणों से स्तुतिकार ने भगवान् की स्तुति की है, अब उनका विवेचन करते हैं
जग-इस पद से यह सिद्ध किया गया है कि-जगत् पंचास्तिकाय रूप है, जो द्रव्य से नित्य है और पर्याय से अनित्य तथा वह जगत् अनन्त पर्यायों के धारण करने वाला है।
जीव-इस पद से चराचर अनन्त आत्माओं का बोध होता है और नास्तिक मत का निषेध किया गया है। क्योंकि आत्मा संसार में अनन्तानन्त हैं, उनका अस्तित्व सदा कालभावी है अर्थात् पहले था, अब है और अनागत काल में भी रहेगा।
जोणी-इस पद से जन्म लेने वाले जीवों का उत्पत्ति-स्थान सिद्ध किया है। सिद्धात्मा जन्म-मरण से रहित होने के कारण अयोनिक होते हैं, उनका अन्तर्भाव इस पद में नहीं होता। जो संसारी जीव हैं, वे कर्म और शरीर से युक्त होने से नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होते रहते हैं।
वियाणओ-विज्ञायक इस पद से स्तुतिकार अरिहन्त भगवान् में केवल ज्ञान की सत्ता सिद्ध करते हैं, जिससे वे अपने ज्ञान के द्वारा जगत् जीवों के जन्म-स्थान को जानते हैं। उपलक्षण से भव्यात्माओं में केवल ज्ञान की सत्ता विद्यमान है, इसे भी स्वीकार किया है। वृत्तिकार ने योनि शब्द की व्युत्पत्ति निम्नलिखित की है, जैसे कि___ “योनय इति युक् मिश्रणे, युवन्ति तैजस-कार्मण-शरीरवन्तः सन्त-औदारिकशरीरेण वैक्रियशरीरेण वाऽऽस्विति योनयो-जीवानामेवोत्पत्तिस्थानानि, ताश्च सचित्तादिभेदभिन्ना अनेकप्रकाराः, उक्तञ्च-सचित्तशीतसंवृत्तेतरमिश्रास्तद् योनयः। (सचित्तशीतसंवृत्ताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः) इति, जगच्च जीवाश्च योनयश्च जगज्जीवयोनयः तासां विविधम्- अनेकप्रकारमुत्पादाद्यनन्तधर्मात्मकतया जानातीति विज्ञायको जगज्जीवयोनिविज्ञायकः, अनेन केवलज्ञानप्रतिपादनात्।" ___ इस कथन से यह सिद्ध होता है कि तैजस् और कार्मण शरीर युक्त जीव ही एक से दूसरी योनि में प्रविष्ट होते हैं, सिद्धात्मा नहीं।
जगगुरु-इस पद से यह सिद्ध किया गया है कि भगवान् शिष्यों को या जनता को पदार्थों का यथार्थ स्वरूप समझाते हैं एतदर्थ वे जगद्गुरु कहलाते हैं, जैसे कि-"जगद् गृणाति-यथावस्थितं प्रतिपादयति शिष्येभ्य इति जगद्गुरुः यथावस्थितप्रतिपादक इत्यर्थः।" इस कथन से यह भी सिद्ध होता है कि आप्तवाक्य ही प्रमाण कोटि में माना जा सकता है तथा इस पद से अपौरुषेयवाद का स्वयं निषेध हो जाता है। क्योंकि जिसके शरीर का सर्वथा अभाव है, उसके मुख का अभाव भी अवश्यंभावी है, जब मुखादि अवयवों का अभाव अवश्यंभावी है, तब शब्द की उत्पत्ति का अभाव स्वयंसिद्ध है। 1. तत्त्वार्थसूत्रम् अ. 2, सूत्र 32
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