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है। मन, वचन और काय गुप्त होते हैं, शल्यत्रय का उद्धरण होता है, पांच समितियां समित हो जाती हैं, ये हैं सु अध्ययन के सुपरिणाम । इसलिए सु-अध्ययन धर्म का पहला अंग है।
सुध्यान-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत, अथवा आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय, इन में मन को लगाना आर्त तथा रौद्र ध्यान से मन को हटाना अथवा ध्यानं निर्विषयं मनः ये सब तरीके सुध्यान के हैं। सुध्यान में धर्म और शुक्ल दोनों का अन्तर्भाव हो जाता है।
सुतप-तप यह धर्म का तीसरा प्रकार है। जिससे विषय, कषाय और संचित कर्म भस्मसात् हो जाएं, उसे तप कहते हैं। तप का विशेष विवरण औपपातिक सूत्र, उत्तराध्ययन 30वां अध्ययन, भगवती सूत्र शतक 25वां, उद्देशक 7वां, अन्कृद्दशांग सूत्र, अनुत्तरोपपातिक सूत्र, तत्त्वार्थ सूत्र का नौवां अध्याय तथा स्थानांग सूत्र, इन सूत्रों में जिज्ञासुजन देख सकते हैं। सम्यक् प्रकार से अध्ययन होने पर ही सुध्यान हो सकता है। सुध्यान होने पर ही सुतप की आराधना हो सकती है। अत: सिद्ध हुआ सु-अध्ययन होने पर ही धर्म की अन्य-अन्य प्रक्रियाएं चालू हो सकती हैं। अतः धर्म का पहला अंग सु-अध्ययन ही है।
नन्दीसूत्र का अध्ययन करना भी इस धर्म में सम्मिलित है, क्योंकि स्वाध्याय धर्मध्यान का आलंबन है। इसके बिना जीवन उन्नति के शिखर पर नहीं पहुंच सकता। श्रुतज्ञान की आराधना स्वाध्याय से ही हो सकती है। हमारे मन में जितनी श्रद्धा-भक्ति श्रमण भगवान् महावीर के प्रति है, उनके वचनामृतरूप आगमों के प्रति भी वही श्रद्धा होनी चाहिए, क्योंकि हमारे लिये इस युग में आगम ही भगवान् हैं।
1. स्थानांग सूत्र स्था. 3, उ. 4 ।
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