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________________ सर्वोत्कृष्ट नहीं हो जाती, तब तक मोक्ष नहीं, ऐसा केवलज्ञानियों का अटल सिद्धान्त है। जहां, तीनों आराधना सर्वोत्कृष्ट हों, वहां 3, जहां मध्यम स्तर पर हो वहां 2, जहां जघन्य स्तर पर आराधना हो वहां 1,यह चिन्ह आराधना के परिचायक हैं। यदि इनके प्रस्तार बनाए जाएं तो 17 भेद बनते हैं, जैसे कि ज्ञान दर्शन चारित्र ज्ञान दर्शन चारित्र ज्ञान दर्शन चारित्र 3 3 3 3 1 3 3 3 3 2 2 2 3 2 3 2 2 2 1 3 1 2 3 3 2 2 2 2 3 2 2 1 धर्म का त्रिवेणी संगम भगवान् महावीर ने एक बार अपने प्रवचन में जनता को धर्म का स्वरूप बतलाते हुए कहा था, कि धर्म तीन प्रकार का है अथवा धर्म की आराधना तीन प्रकार से की जा सकती है, जैसे कि 2 2 2 2 2 1 1 1 1 1 1 1 1 ज्ञान दर्शन चारित्र 1 1 .X X .X 1 1 X X X 2 1 X X X 1, सु-अध्ययन, 2. सुध्यान, 3. सुतप । 'सु' के स्थान में सम्यक् का प्रयोग भी कर सकते हैं। ‘सु' और सम्यक् का एक ही अर्थ है। विधिपूर्वक श्रद्धा एवं विनय के साथ अध्ययन करना धर्म है। अथवा अनुप्रेक्षा पूर्वक अध्ययन करने को सु-अध्ययन कहते हैं। अनुप्रेक्षा को दूसरे शब्दों में निदिध्यासन भी कहते हैं। स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय कर्म प्रकृतियों का क्षय होता है। स्वाध्याय पांच प्रकार से किया जाता है - आगमों का अध्ययन करना, शंका होने पर ज्ञानी गुरु से पूछना, सीखे हुए आगमों की पुनः पुनः आवृत्ति करते रहना, आगम के अनुसार श्रोताओं को धर्मकथा या धर्मोपदेश करते रहना, अनुप्रेक्षा स्वाध्याय का पांचवाँ प्रकार है। अनुप्रेक्षा के बिना उक्त चार प्रकार का स्वाध्याय मिथ्यादृष्टि भी कर सकता है, किन्तु अनुप्रेक्षा- स्वाध्याय सिवाय सम्यग्दृष्टि के अन्य कोई व्यक्ति नहीं कर सकता। अनुप्रेक्षा करने से आयु कर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मों के प्रगाढ़ बन्धन शिथिल हो जाते हैं, दीर्घकालिक स्थिति क्षय होकर अल्पकालीन रह जाती है, उन कर्मों का तीव्र र मन्द हो जाता है। यदि कर्म बहुप्रदेशी हों, तो वे स्वल्प प्रदेशी हो जाते हैं, इतनी महानिर्जरा अनुप्रेक्षा पूर्वक अध्ययन करने से होती है। स्वाध्याय करने से वैराग्य भावना जाग्रत होती है, कर्मों की निर्जरा होती है; ज्ञान विशुद्ध होता है, चारित्र के परिणाम बढ़ते ही जाते हैं। धर्म में स्थैर्य होता है, देवायु का बन्ध होता है, भवान्तर में यथाशीघ्र रत्नत्रय का लाभ होता है । 108
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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