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सिद्ध हो जाता है। मनुष्य के दोनों भव आराधक ही रहते हैं। अथवा जिस भव में आराधना की है, उसके अतिरिक्त एक देव भव और दूसरा मनुष्य भव इस अपेक्षा से दूसरे भव को अतिक्रम नहीं करता। मनुष्य भव के अतिरिक्त अन्य भव में रत्नत्रय की आराधना नहीं हो सकती। रत्नत्रय का मध्यम आराधक उसी भव में सिद्धत्व प्राप्त नहीं कर सकता, दूसरे भव में सिद्ध हो सकता है, अन्यथा तीसरे भव को अतिक्रम नहीं करता। इस कथन से भी दूसरा या तीसरा मनुष्य भव आश्रयी समझना चाहिए। ___ जिस साधक ने रत्नत्रय की जघन्य आराधना की है, वह तीसरे भव से पहले सिद्ध नहीं हो सकता। वह तीसरे भव से अधिक से अधिक सात-आठ भव से अवश्य सिद्ध हो जाएगा। जब तक जीव चरमशरीरी बनकर मनुष्य भव में नहीं आता, तब तक क्षपक श्रेणी में आरोहण नहीं कर सकता । आराधक मनुष्य वैमानिक देव के अतिरिक्त अन्य किसी गति में नहीं जाता और देव भव से च्यवकर सिवा मनुष्य भव के अन्य किसी गति में उत्पन्न नहीं होता। विराधक संयमसहित मनुष्य भव तो असंख्यात भी हो सकते हैं, किन्तु आराधक भव जितने अधिक से अधिक हो सकते हैं वे आठ ही हो सकते हैं। अधिक नहीं। यह कथन जघन्य रत्नत्रय के आराधक के विषय में समझना चाहिए। - ज्ञान सम्यक्त्व का सहचारी गुण है और अज्ञान मिथ्यात्व का। सम्यग्दर्शन के समकाल जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उनको ज्ञान,आराधना और दर्शन आराधना नहीं कहते, अपितु उसके निरतिचार पालन करने को आराधना कहते हैं। रत्नत्रय में दोष नहीं लगाना अथवा दोष लग जाने पर मायारहित आलोचना, निन्दना, गर्हणा आदि प्रायश्चित्त करने से रत्नत्रय को विशुद्ध, विशुद्धतर करना ही आराधना कहलाती है। रत्नत्रय की साधना में उत्तीर्ण होने को आराधक कहते हैं और अनुत्तीर्ण होने को विराधक। श्रुतज्ञान की जब सर्वोच्च आराधना होती है, तब वह आराधक उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार दर्शन और चारित्र के विषय में समझ लेना चाहिए। जब तीनों की आराधना सर्वोच्च श्रेणी तक पहुंच जाए, तब उसी भव में आत्मा का मोक्ष हो जाता है।
- साधक के जीवन का मूल्यांकन आयु के अन्तिम क्षण में ही हो जाता है कि जीवन आराधनामय व्यतीत हुआ है या विराधनामय। यदि जीवन आराधनामय रहा तो काललब्धि या कर्मशेष रहने पर आगे आने वाले मनुष्यभव जितने भी होंगे, वे सब आराधनामय ही व्यतीत होंगे। देव भव और मनुष्य भव के सिवा अन्य नरक और तिर्यंच गति में भोगने योग्य कर्म प्रकृतियों का वह बन्ध नहीं करता। देवों में वैमानिक और मनुष्यों में उच्चकुल, उच्चजाति में जन्म लेता है। मनुष्य भव में उत्तरोत्तर आराधना विशुद्ध-विशुद्धतर होती जाती है। जिस भव में रत्नत्रय की सर्वोच्च आराधना हो जाएगी, उसी भव में ही मोक्ष प्राप्त होता है। यदि एक में भी अपूर्णता रही तो मोक्ष नहीं, देव भव करना पड़ता है। तीनों की आराधना जब तक
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