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________________ चतुर्दशपूर्वधर, अवधिज्ञानी तथा मन:पर्यवज्ञानी हैं, उन्हें श्रुत केवली कहते हैं। इस दृष्टि से श्रुतकेवली भी देवलोक में उत्पन्न हो सकता है। सम्यक्त्व सहित आगम ज्ञान पराविद्या है। अन्यथा अपराविद्या है। क्योंकि विद्या दो प्रकार की होती है, एक अपरा और दूसरी परा। लौकिकी और लोकोत्तरिकी, व्यावहारिकी और नैश्चयिकी, मिथ्याश्रुत और सम्यक्श्रुत, इन नामान्तरों से भी उक्त दोनों विद्याओं का बोध हो जाता है। ___ अपरा विद्या का सीधा संबन्ध बहिर्जगत् से है, उस का फल है, भौतिक तत्त्वों का विकास, आजीविका, पारितोषिक, सत्ता-ऐश्वर्य, यश और प्रतिष्ठा का लाभ। इस विद्या के सन्निकट साथी हैं-पदलोलुपता, तृष्णा, हिंसा, शोषणता, विद्रोह, मिथ्यात्व,कृतघ्नता, रागद्वेष, विषय-कषाय। इस विद्या का पारंपरिक फल है-दुर्गतियों में परिभ्रमण एवं अनन्त संसार की वृद्धि आदि इसके दुष्परिणाम हैं। इसी को पारम्परिक फल भी कहते हैं। ... पराविद्या के लक्षण जिस विद्या से आत्मा सदा के लिए ज्ञान से आलोकित हो जाए, अज्ञान एवं मिथयात्व की सर्वथा निवृत्ति हो जाए अथवा जिस से आत्मा अपूर्ण से पूर्णता की ओर बढ़े, वही पराविद्या है। वह सुनने से, अध्ययन करने से अनुभव एवं अनुप्रेक्षा से प्रतिक्षण वृद्धि को प्राप्त होती है। ___ अहिंसा, सत्य, क्षमा, तप, मार्दव, आर्जव, शौच, संयम, त्याग, संतोष, लाघव, ब्रह्मचर्यवास, प्रशम, संवेग, विरक्ति, करुणा, आस्था, शान्ति, मध्यस्थता, साधुता, सभ्यता, विनयता, वीतरागता एवं निष्परिग्रहता आदि अनन्तगुण पराविद्या के सहचारी हैं। देशविरति और सर्वविरति का होना उस का साक्षात् सुपरिणाम है। उसी भव में सिद्धत्व प्राप्त करना, कर्म शेष रहने पर कल्प देवलोक में महर्द्धिक, महाप्रभावक, दीर्घस्थितिक देवत्व प्राप्त करना तथा कल्पातीत एवं अनुत्तर विमान में देवत्व प्राप्त करना, यह सब पराविद्या के परंपर फल हैं। नन्दीसूत्र समस्त श्रुत साहित्य का एक बिन्दु है, वह पराविद्या का असाधारण कारण है। आत्मज्ञान हो जाना ही पराविद्या का अंतिम फल है, क्योंकि आत्मस्वरूप की पहचान इसी विद्या से होती है। इन्सान को आत्मलक्ष्यी बनाने वाली यही विद्या है। इसी विद्या से कर्मों एवं दु:खों का तथा अज्ञान का सर्वथा क्षय होता है, कहा भी है-“सा विद्या या विमुक्तये"। इसी विद्या के सहयोग से शुक्लध्यान तथा यथाख्यात चारित्र की आराधना हो सकती है। पराविद्या आत्मा में पाई जाती है, न कि किताबों में? हां, जो श्रुत या आगम पुस्तक रूप में है, वह . 1. देखो स्थानांग सूत्र, स्था0 3, उ0 41 - 104 -
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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