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________________ सम्यग्दृष्टि तथा मार्गानुसारी के लिए पराविद्या का कारण है, किन्तु मिथ्यादृष्टि के लिए सभी श्रुतसाहित्य अपराविद्या ही है। आगम में रत्नत्रय की आराधना के तीन-तीन प्रकार बतलाए कइविहा णं भंते ! आराहणा पण्णत्ता ? गोयमा! तिविहा आराहणा पण्णत्ता, तंजहा-नाणाराहणा, दंसणाराहणा, चरित्ताराहणा। नाणाराहणा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा प०, तं० उक्कोसिया, मज्झिमा, जहण्णा। दंसणाराहणा णं भंते ! कइविहा? एवं चेव तिविहावि, एवं चरित्ताराहणावि।' नए ज्ञान की प्राप्ति और प्राप्त ज्ञान की रक्षा के लिए सतत प्रयास करना ही ज्ञान की आराधना कहलाती है। तत्त्व और उनके अर्थों पर दृढ़श्रद्धा रखना ही दर्शनाराधना कहलाती है। शुद्ध दशा में स्थिर रहने का प्रयत्न करना ही चारित्र है। जिस क्रिया से आत्मा की बद्धकर्मों से सर्वथा विमुक्ति हो जाए, आत्मा स्वच्छ-निर्मल हो जाए, पूर्णतया विकसित हो जाए, वैसी क्रिया में प्रयत्नशील रहने को ही चारित्र-आराधना कहते हैं। गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया___जस्स णं भंते ! उक्कोसिया नाणाराहणा, तस्स उक्कोसिया दंसणराहणा? जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा, तस्स उक्कोसिया नाणाराहणा? गोयमा ! जस्स उक्कोसिया नाणाराहणा तस्स दंसणाराहणा उक्कोसा वा अजहण्णमणुक्कोसा वा, जस्स पुण उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स नाणाराहणा उक्कोसा वा, जहण्णा वा, अजहण्णमणुक्कोसा वा। __अर्थात् भगवन् ! जिस की उत्कृष्ट ज्ञान आराधना हो रही है, क्या उसकी दर्शन आराधना भी उत्कृष्ट ही हो रही है? जिस की दर्शन आराधना उत्कृष्ट हो रही है, क्या उस की ज्ञान आराधना भी उत्कृष्ट ही हो रही है? गौतम गणी के प्रश्नों का उत्तर देते हुए महावीर प्रभु ने कहा-गौतम ! जिस की ज्ञान आराधना उत्कृष्ट हो रही है, उस की दर्शन आराधना उत्कृष्ट और मध्यम हो सकती है, किन्तु जिस की दर्शन आराधना उत्कृष्ट स्तर पर हो रही है, उस की ज्ञान आराधना उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य तीनों प्रकार की हो सकती है। इस प्रसंग में ज्ञान आराधना का तात्पर्य श्रुतज्ञान से है, न कि केवलज्ञान से। उत्कृष्ट दर्शन आराधना का आशय है क्षायिक सम्यक्त्व के अभिमुख क्षयोपशम सम्यक्त्व की प्रगति एवं स्वच्छता से। क्योंकि सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने मात्र को ही दर्शनाराधना नहीं कहते, सम्यक्त्व को उत्तरोत्तर विशुद्ध भावों से उस स्तर पर पहुंचाना, जहां से पुनः प्रतिपाति न हो सके, उसे उत्कृष्ट दर्शन आराधना कहते हैं। गौतम स्वामी ज्ञान और चारित्र की तुलना के विषय में फिर प्रश्न करते हैं। भगवती सूत्र, शo 8, उ0 10 । - *105 -
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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