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________________ की नामावलि का उल्लेख किया है। काश्यप गोत्री देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण दूष्यगणी के पट्टधर आचार्य हुए हैं। अत: सिद्ध हुआ, देववाचक और देवर्द्धिगणी एक ही व्यक्ति के अपर नाम और पदवी हैं। जो पहले देववाचक के नाम से ख्यात थे, वे ही देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के नाम से आगे चलकर विख्यात हुए। किसी अज्ञात मुनिवर ने कल्पसूत्र की स्थविरावलि में लिखा है सुत्तत्थरयणभरिए, खम-दम-मद्दव गुणेहिं सम्पन्ने । देवड्ढि खमासमणे, कासवगुत्ते पणिवयामि ॥ अर्थात जो सूत्र और अर्थ रूप रत्नों से समृद्ध, क्षमा, दान्त, मार्दव आदि अनेक गुणों से सम्पन्न हैं, ऐसे काश्यप गोत्री देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण को मैं सविधि वन्दन करता हूँ। नन्दी सूत्र के संकलन करने वाले तथा आगमों को लिपिबद्ध करने वाले देवर्द्धिगणीजी को लगभग 1500 वर्ष हो गए हैं। आजकल जो भी आगम उपलब्ध हैं, इस का श्रेय उन्हीं को मिला है। आराधना के प्रकार . . जिस से आत्मा की वैभाविक पर्याय निवृत्त हो जाए और स्वाभाविक पर्याय में परिणति हो जाए, उसे आराधना कहते हैं। अथवा आध्यात्मिक दृष्टि से साधना में उत्तीर्ण हो जाना ही आराधना है। वह दो प्रकार की होती है-धार्मिक आराधना और केवलि-आराधना। धर्मध्यान के द्वारा जो आराधना होती है, उसे धार्मिक आराधना कहते हैं। जो शुक्ल ध्यान के द्वारा आराधना की जाए, वह केवलि-आराधना कहलाती है। धार्मिक आराधना भी दो प्रकार से की जाती है-एक श्रुतधर्म से और दूसरी चारित्र धर्म से। सम्यक्त्व सहित आगमों का विधि पूर्वक अध्ययन करना श्रुतधर्म कहलाता है। श्रुतज्ञान जितना प्रबल होगा, उतना ही चारित्र प्रबल होगा। जैसे प्रकाश सहित चक्षुमान व्यक्ति सभी प्रकार की क्रियाएं कर सकता है, किसी भी सूक्ष्म व स्थूल क्रिया करने में उसे कोई बाधा नहीं आती, वैसे हो सम्यग्दृष्टि जीव को सम्यग्ज्ञान-आलोक से चारित्र की आराधना में सुगमता रहती है। दृष्टि सम्यक् होने पर ज्ञानाराधना भी धर्म है, क्योंकि धर्मध्यान के सौध पर आगम अभ्यास के द्वारा पहुंचने में सुविधा रहती है। आगमों का श्रवण और अध्ययन का सम्बन्ध श्रुतधर्म से है। .. केवलि-आराधना भी दो प्रकार की होती है-अन्तक्रिया केवलि-आराधना और कल्पविमान-औपपत्तिका। इन में पहली आराधना करने वाला जीव सिद्धत्व प्राप्त करता है और दूसरी आराधना करने वाला कल्प और कल्पातीत वैमानिक देव बनता है। क्या केवली भी देवलोक में उत्पन्न हो सकता है? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है, जो मुनिवर 1. देखो स्थानांग सूत्र, स्था. 2 उ. 4 *103*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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