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________________ सकते। यदि श्रुतज्ञान का सर्वथा विच्छेद हो गया तो श्रमण निर्ग्रन्थ कहां रह सकेंगे? "मूलं नास्ति कुतः शाखा" तीर्थ का अस्तित्व जिनप्रवचन पर ही निर्भर है। जड़ें नष्ट व शुष्क हो जाने पर वृक्ष हरा-भरा कहां रह सकता है, कहा भी है-"सर्वनाशे समुत्पन्नेऽर्धं त्यजति पण्डितः" इस उक्ति को लक्ष्य में रखते हुए समयानुसार आगमों का लिपिबद्ध करना ही सर्वथा उचित है। गणधरों के युग में मुनिपुंगवों की धारणाशक्ति बड़ी प्रबल थी, बुद्धि स्वच्छ एवं निर्मल थी, हृदय निष्कलंक एवं ऋजु था, श्रद्धा की प्रबलता थी इस कारण उन्हें पुस्तकों की आवश्यकता ही नहीं रहती थी। स्मरण शक्ति की प्रबलता से वे आगमों को कण्ठस्थ करते थे। उन में विस्मृति का दोष नहीं पाया जाता था। इसलिए उन्हें आगमों को लिपिबद्ध करने की कभी उपयोगिता अनुभव नहीं हुई। इस प्रकार क्षमाश्रमण जी ने असहमत मुनिवरों को कथंचित् सहमत किया। तत्पश्चात् जिन बहुश्रुत मुनियों को जो-जो आगम कण्ठस्थ थे, उन्हें प्रामाणिकता से लिखना प्रारम्भ किया। लिखने के अनन्तर जो-जो प्रतियां परस्पर मिलती गईं, उन्हें प्रमाण रूप से स्वीकार कर लिया गया, जहां-जहां कहीं पाठ-भेद देखा, उन-उन पाठों को पाठान्तर के रूप में रखते गए। इस प्रकार उन्होंने शेषावशेष आगमों को संकलन सहित लिपिबद्ध किया। फिर भी बहुत कुछ आगम विस्मृति दोष से व्यवच्छिन्न हो गए और आचारांग सूत्र का महापरिज्ञा नामक सातवां अध्ययन सर्वथा लुप्त हो गया। जिस समय आगम लिपिबद्ध किए गए, उस समय 84 आगम विद्यमान थे। काल दोष से उन में से भी अधिकतर व्यवच्छिन्न हो गए हैं। वर्तमान काल में 45 आगम हैं। श्वेताम्बर मन्दिर मार्गी उपलब्ध सभी आगमों को प्रामाणिकता देते हैं, जब कि श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन और श्वेताम्बर तेरापन्थ जैन उक्त संख्यक आगमों में से 32 आगमों को प्रामाणिकता देते हैं। दिगम्बर जैन के मान्य शास्त्रों में उपर्युक्त आगमों के नाम तो मिलते हैं, किन्तु उन्हें मान्यता देने से वे सर्वथा इन्कार करते हैं। उन का विश्वास है कि 12 अंग और 12 उपांग तथा चार मूल और चार छेद इत्यादि सभी आगम कालदोष से व्यवच्छिन्न हो गए हैं। जिन आगमों में स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति और वस्त्र-पात्र का उल्लेख आया, उन्हें मानने से उन्होंने सर्वथा इन्कार कर दिया। सम्भव है, उक्त आगमों को मान्यता न देने का मुख्य कारण यही रहा हो। आधुनिक किन्ही विद्वानों की मान्यता है कि नन्दी के रचयिता देववाचक हुए हैं और आगमों को लिपिबद्ध करने वाले देवर्द्धिगणी हुए हैं। अत: उक्त दो महानुभाव अलग-अलग समय में हुए हैं, एक ही व्यक्ति नहीं । किन्तु उन की यह धारणा हृदयंगम नहीं होती, क्योंकि देववाचक जी ने नन्दी की स्थविरावलि में दूष्यगणी तक ही अनुयोगधर आचार्य और वाचकों * 102 *
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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