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________________ देववाचकजी का संक्षिप्त परिचय देववाचकजी सौराष्ट्र प्रदेश के एक क्षत्रिय कुल मुकुट, काश्यप गोत्री मुनिसत्तम हुए हैं। जिन्होंने आचारांग आदि ग्यारह अंग सूत्रों के अतिरिक्त दो पूर्वो का अध्ययन भी किया। उनकी अध्ययन कला बृहस्पति के तुल्य होने से श्रीसंघ ने कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए उन्हें देववाचक पद से विभूषित किया। इनका माता-पिता ने क्या नाम रखा था? यह अभी खोज का विषय है। नन्दीसूत्र का संकलन या रचना करने वाले देववाचकजी हुए हैं। वे ही आगे चलकर समयान्तर में दूष्यगणी के पट्टधरगणी हुए हैं अर्थात् उपाध्याय से आचार्य बने हैं। दैवी संपत्ति व आध्यात्मिक ऋद्धि से समृद्ध होने के कारण देवर्द्धि गणी के नाम से ख्यात हुए हैं। तत्कालीन श्रमणों की अपेक्षा क्षमाप्रधान श्रमण होने से देवर्द्धिगणी-क्षमाश्रमण के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुए हैं। एक देवर्द्धिगणी-क्षमाश्रमण इनसे भी पहले हुए हैं, वे काश्यप गोत्री नहीं, बल्कि माठरगोत्री हुए हैं, ऐसा कल्पसूत्र की स्थविरावलि में स्पष्ट उल्लेख है। काश्यपगोत्री देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमणजी अपने युग के महान् युगप्रवर्तक, विचारशील, दीर्घदर्शी, जिन प्रवचन के अनन्य श्रद्धालु, श्रीसंघ के अधिनायक आचार्य प्रवर हुए हैं। जिन प्रवचन को स्थिर एवं चिरस्थायी रखने के लिए उन्होंने वल्लभीनगर में बहुश्रुत मुनिवरों के एक बृहत्सम्मेलन का आयोजन किया। उस सम्मेलन में आचार्यश्री जी ने सूत्रों को लिपिबद्ध करने के लिए अपनी सम्मति प्रकट की। उन्होंने कहा, बौद्धिक शक्ति प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है, यदि हम आगमों को लिपिबद्ध नहीं करेंगे, तो वह समय दूर नहीं है, जबकि समस्त आगम लुप्त हो जाएंगे। आगमों का अभाव होने पर तीर्थ का व्यवच्छेद होना अनिवार्य है, क्योंकि कारण के अभाव होने पर कार्य का अभाव अनिवार्य है। ___ आचार्य प्रवर के इस प्रस्ताव से अधिकतर मुनिवर सहमत हो गए, किन्तु कतिपय निर्ग्रन्थ इस प्रस्ताव से सहमत नहीं हुए। क्योंकि उन का यह कथन था, यदि आगमों को लिपिबद्ध किया गया तो निर्ग्रन्थ श्रमणवरों में आरम्भ और परिग्रह की प्रवृत्ति का बढ़ जाना सहज है। दूसरा कारण उन्होंने यह भी बताया कि यदि आगमों का लिपिबद्ध करना उचित होता, तो गणधरों के होते हुए ही आगम लिपिबद्ध हो जाते, वे चतुर्सानी, चतुर्दश पूर्वधर थे। उन्होंने भी अपने ज्ञान में यही देखा कि आगमों को लिपिबद्ध करने से आरम्भ और परिग्रह तथा आशातना आदि दोषों को जन्म देना है। अतः उक्त दोषों को लक्ष्य में रखकर, उन्होंने आगमों को लिपिबद्ध करने तथा कराने की चेष्टा नहीं की। हमें भी उन्हीं के पदचिन्हों पर ही चलना चाहिए, विरुद्ध नहीं, इतना कहकर वे मौन हो गए। . इस का उत्तर देते हुए देवर्द्धिगणी ने कहा-यह ठीक है कि आगमों को लिपिबद्ध करने से अनेक दोषों का उद्भव होना अनिवार्य है और श्रमण निर्ग्रन्थ उन दोषों से अछूते नहीं रह * 101 *
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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