SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार प्रतिलेखना करते सयम त्याग करने योग्य जो अन्य बातें हैं, अब उनके विषय में कहते हैं पडिलेहणं कुणन्तो, मिहो कहं कुणइ जणवयकहं वा। देइ व पच्चखाणं, वाएइ सयं पडिच्छइ वा ॥ २९ ॥ प्रतिलेखनां कुर्वन्, मिथः कथां करोति जनपदकथां वा । ददाति वा प्रत्याख्यानं. वाचयति स्वयं प्रतीच्छति वा ॥२९॥ पदार्थान्वयः-पडिलेहणं-प्रतिलेखना, कुणन्तो-करता हुआ, मिहो-परस्पर, कह-कथा, कुणइ-करता है, वा-अथवा, जणवयं-जनपद की, कह-कथा करता है, व-अथवा, पच्चक्खाणं-प्रत्याख्यान, देइ-देता है, वा-अथवा, वाएइ-पढ़ाता है अथवा, सयं-स्वयं, पडिच्छइपढ़ता है। मूलार्थ-प्रतिलेखना करता हुआ साधु यदि परस्पर कथा करता है, अथवा जनपद-संबंधी कथा करता है, अथवा किसी को प्रत्याख्यान कराता है, अथवा किसी को पढ़ाता या किसी से स्वयं पढ़ता है। (ये क्रियाएं त्याज्य हैं) टीका-प्रस्तुत गाथा में प्रतिलेखना करते समय जिन बातों को त्याज्य माना गया है, उन सबका दिग्दर्शन कराया गया है। जैसे कि-प्रतिलेखना करते समय परस्पर सम्भाषण करना, देश संबंधी और उपलक्षण से स्त्री आदि की कथा करना, किसी को प्रत्याख्यान कराना, अथवा किसी को पढ़ाना या किसी से स्वयं पढ़ना इत्यादि कार्य वर्ण्य हैं। ___इसका अभिप्राय यह है कि प्रतिलेखना करते समय साधु न तो किसी से अधिक संभाषण करे और न ही देश-संबंधी कथा कहे और किसी को प्रत्याख्यान भी न कराए तथा न स्वयं पढ़े और न अन्य को पढ़ाए ही, क्योंकि उक्त क्रियाओं में प्रवृत्त होने से उपयोग के भंग होने की पूरी संभावना रहती है। ___अब शास्त्रकार स्वयं उक्त क्रियाओं के अनुष्ठान से प्रतिलेखना में लगने वाले दोषों का वर्णन करते हैं पुढवी-आउक्काए, तेऊ-वाऊ-वणस्सइ-तसाणं । पडिलेहणापमत्तो, छण्हं पि विराहओ होइ ॥ ३० ॥ पृथ्व्यप्काय, तेजोवायुवनस्पतित्रसानाम्। प्रतिलेखनाप्रमत्तः, षण्णामपि विराधको भवति ॥ ३० ॥ पदार्थान्वयः-पुढवी-पृथ्वीकाय, आउक्काए-अप्काय, तेऊ-तेजस्काय, वाऊ-वायुकाय, वणस्सइ-वनस्पतिकाय, तसाणं-त्रसकाय, पडिलेहणा-प्रतिलेखना में, पमत्तो-प्रमाद करने वाला, छहंपि-छओं कायों का, विराहओ-विराधक, होइ-होता है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४२] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy