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________________ परिनिर्वृतः । इति प्रादुष्कृत्य बुद्धः, ज्ञातज: . षट्त्रिंशदुत्तराध्यायान्, भव्यसिद्धिकसम्मतान् ॥ २६९ ॥ इति ब्रवीमि । इति जीवाजीवविभक्तिः समाप्ता ॥ ३६ ॥ इति उत्तरज्झयणं सुत्तं समत्तं इत्युत्तराध्ययनं सूत्रं समाप्तम् पदार्थान्वयः-इय-इस प्रकार, पाउकरे - प्रकट करके, बुद्धे - बुद्ध, नायए - ज्ञातपुत्र-वर्द्धमान स्वामी, परिनिव्वुए - निर्वाण को प्राप्त हो गए, छत्तीसं - छत्तीस, उत्तरज्झाए - उत्तराध्ययनसूत्र - अध्यायों को, भवसिद्धियसंमए- जो भव्यसिद्धिक जीवों को सम्मत हैं, त्ति बेमि- इस प्रकार मैं कहता हूं। मूलार्थ - इस प्रकार जो भव्य जीवों को सम्मत हैं ऐसे उत्तराध्ययनसूत्र के ३६ अध्ययनों को प्रकट करके ज्ञातपुत्र भगवान् श्री महावीर स्वामी निर्वाण को प्राप्त हो गये, इस प्रकार मैं- सुधर्मास्वामी कहता हूं। टीका - प्रस्तुत गाथा में उत्तराध्ययनसूत्र की प्रामाणिकता, उपयोगिता और अध्ययनों की संख्या का वर्णन किया गया है। “केवलज्ञानी - ( सर्वज्ञ और सर्वदर्शी) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उत्तराध्ययनसूत्र के ३६ अध्ययनों का अर्थतः प्रकाश किया" इस कथन से इसकी प्रामाणिकता ध्वनित की गई है और 'भव्य जीवों को सर्व प्रकार से सम्मत्त है' यह कथन इसकी उपयोगिता को बतला रहा है। इसके अतिरिक्त इसके अध्ययनों की संख्या का निर्देश इसलिए किया गया है कि अन्य कोई भी व्यक्ति किसी प्रकार के स्वार्थ के वशीभूत होकर इसमें न्यूनाधिकता न कर सके। तथा 'भगवान् महावीर स्वामी इसके ३६ अध्ययनों को प्रकट करके मोक्ष को चले गए' इस कथन से इस सूत्र को उनका अन्तिम उपदेश प्रमाणित किया गया है, जिससे कि आत्मार्थी जीवों को इसके विषय में विशेष आदरबुद्धि और विशेष जिज्ञासा उत्पन्न हो सके। यह सूत्र कितना सारगर्भित तथा आत्मार्थी जीवों के लिए कितना उपयोगी है इस बात को तो इसके स्वाध्याय करने वाले ही भलीभांति जान सकते हैं। इसके प्रत्येक अध्ययन में उत्तरोत्तर कितनी सरसता, कितना गाम्भीर्य और कितनी मार्मिकता है, इसके लिए भी किसी प्रमाणान्तर की अपेक्षा नहीं है। इसमें धर्मकथानुयोग का वर्णन भली-भांति किया गया है, तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की व्याख्या और फलश्रुति भी पर्याप्त रूप से विद्यमान है, एवं धर्म, नीति और आचार - सम्बन्धी विषयों की मीमांसा करने में भी किसी प्रकार की त्रुटि नहीं रखी गई है । सारांश यह है कि यह सूत्र हर एक दृष्टि से उपादेय है। इसके अतिरिक्त गाथा में आए हुए 'नायए' पद के - ' ज्ञातकः, ज्ञातज:' ये दोनों ही प्रतिरूप माने जाते हैं और किसी-किसी प्रति में 'भवसिद्धियसंवुडे - भव्यसिद्धिकसंवृतः ऐसा पाठ भी देखने में आता है। इस पाठ में उक्त पद 'नायए - ज्ञातज' का विशेषण हो जाता है। इस अवस्था में 'आश्रवों का निरोध करके उसी जन्म में सिद्धि को प्राप्त करने वाला' यह उसका अर्थ होगा। तथा 'पाउकरे का प्रादुरकार्षीत् - प्रकाशितवान्' यह प्रतिरूप भी होता है । और परिनिर्वृत्त का अर्थ है - क्रोधादि कषायों के सर्वथा क्षय हो जाने से परम शान्त दशा को प्राप्त होने वाला। इसके अतिरिक्त यहां पर इतना और भी अवश्यं स्मरण रहे कि - शास्त्रों में सत्य, असत्य, मिश्र और व्यावहारिक ये चार प्रकार के वचनयोग- वाणी के व्यापार - माने गए हैं। इन चार में से भगवान् की वाणी में तो सत्य और व्यावहारिक वचन का ही उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४८९ ] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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