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________________ को प्राप्त नहीं होती । अब मोह - भावना के विषय में कहते हैं सत्थग्गहणं विसभक्खणं च, जलणं च जलपवेसो य । अणायारभंडसेवी, जम्मणमरणाणि बंधंति ॥ २६८ ॥ शस्त्र-ग्रहणं विष- भक्षणञ्च, ज्वलनञ्च जलप्रवेशश्च । अनाचारभाण्डसेवी, जन्ममरणानि बध्नन्ति ॥ २६८ ॥ पदार्थान्वयः - सत्थग्गहणं-शस्त्र का ग्रहण, च-और, विसभक्खणं - विष का भक्षण, जलणं - अग्नि में झंपापात, य-और, जलपवेसो-जल में प्रवेश, अणायारभंडसेवी - अनाचार भांड - परिसेवन से, जम्मणमरणाणि - जन्म और मृत्यु की, बंधंति - वृद्धि होती है । मूलार्थ - शस्त्र-ग्रहण, विष-भक्षण, अग्नि में झंपापात और जल में प्रवेश तथा आचार भ्रष्टता और उपहासादि के द्वारा जो जीव मृत्यु को प्राप्त करते हैं वे जन्म-मरण की वृद्धि करते हैं। टीका - प्रस्तुत गाथा में मोह - भावना के स्वरूप का अर्थत: दिग्दर्शन कराते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि जो जीव शस्त्र के द्वारा मृत्यु को प्राप्त होते हैं, अर्थात् खड़गादि के द्वारा आत्म - घात कर लेते हैं, अथवा अग्नि में जलकर मरते हैं, वा जल में डूबकर प्राण त्याग करते हैं, तथा अनाचार के सेवन मृत्यु को प्राप्त करते हैं और हास्यादि के कारण से मरते हैं, वे जीव जन्म-मरणरूप संसार की वृद्धि करते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि शस्त्र, अग्नि, जल, अनाचार और हास्य - मोहादि के द्वारा मृत्यु को प्राप्त करना मोह-भावना है। इस भावना को लेकर मरने वाला जीव निरन्तर जन्म-मरण देने वाले कर्मों को ही विशेषरूप से बांधता है, क्योंकि कर्म-बन्ध में मोह की मात्रा ही विशिष्ट कारण है। उक्त प्रकार से जो मृत्यु होती है उसमें मोह की ही अधिक प्रधानता रहती है। इसलिए संयमशील पुरुष को मोह के वशीभूत होकर इन उक्त प्रयोगों के द्वारा मृत्यु प्राप्त करने के संकल्प को सर्वत्र त्याग देना चाहिए। कारण यह है कि ये सब लक्षण बाल-मरण के हैं और बाल-मरण का अनिष्ट परिणाम सुनिश्चित ही है। तथाच, कहा भी है " एता भावना भावयित्वा देवदुर्गतिं यान्ति, ततश्च च्युताः सन्तः पर्यटन्ति भवसागरमनन्तम् । " अर्थात् इन भावनाओं से भावित हुए जीव, देव-दुर्गति को प्राप्त होते हैं और वहां से च्यव कर वे चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं । अतः इन उक्त अशुभ भावनाओं का परित्याग करके विधिपूर्वक संलेखनादि शुभ प्रवृत्तियों में रहकर आराधक भाव से शरीर का त्याग करना ही मुमुक्षु के लिए समुचित और शास्त्र - सम्मत कार्य है। अब अध्ययन की समाप्ति करते हुए कहते हैं किपाउकरे इय पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुए । छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धियसंमए ॥ २६९ ॥ तिमि । इति जीवाजीवविभत्ती समत्ता ॥ ३६ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४८८ ] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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