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प्रयोग होता है। उसमें भी व्यावहारिक वचन का प्रयोग तो किसी आदेश-विशेष के आश्रित होकर ही किया जाता है और सत्य वचन का प्रयोग तो सर्वत्र ही होता है।
इस प्रकार उत्तराध्ययन और उसके महत्व का वर्णन करते हुए श्री सुधर्मास्वामी अपने विनीत शिष्य श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं कि मैंने जिस प्रकार से श्रमण भगवान् श्री वर्धमान (महावीर) स्वामी से इस जीवाजीव-विभक्तिनामा अध्ययन का श्रवण किया है, उसी प्रकार मैंने तुमको श्रवण कराया है। इसमें मेरी निज की कल्पना कुछ नहीं, यह 'त्ति बेमि' पद का भावार्थ है।
श्री सुधर्मास्वामी के कथन का आशय यह है कि-उत्तराध्ययन का मूलस्रोत तो भगवान महावीर स्वामी हैं, उन्हीं के मुखारविन्द से यह प्रकाशित हुआ है। इसमें मेरा कार्य तो उस प्रकाश का केवल निर्देशमात्र कर देना है तथा सुधर्मास्वामी के इस कथन से इस सूत्र की निरवच्छिन्न परम्परा भी स्पष्ट शब्दों में ध्वनित होती है जो कि समुचित है।
षट्त्रिंशत्तमाध्ययनं सम्पूर्णम् उत्तराध्ययनसूत्रं सम्पूर्णम्
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४९०] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं