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________________ अब प्रस्तुत विषय का निगमन करते हुए कहते हैं, कि संसारत्था य सिद्धा य, इय जीवा वियाहिया । रूविणो चेवारूवी य, अजीवा दुविहावि य ॥ २४९ ॥ संसारस्थाश्च सिद्धाश्च, इति जीवा व्याख्याताः । रूपिणश्चैवारूपिणश्च, अजीवा द्विविधा अपि च ॥ २४९ ॥ पदार्थान्वयः-संसारत्था-संसारी, य-और, सिद्धा-सिद्ध, इय-इस प्रकार से, जीवा-जीव, वियाहिया-कथन किए गए हैं, च-फिर, रूविणो-रूपी, य-और, अरूवी-अरूपी, अजीवा-अजीव, अवि-भी, दुविहा-दोनों प्रकार से वर्णन किए गए हैं। मूलार्थ-इस प्रकार से संसारी और सिद्ध जीवों का वर्णन किया गया है, तथा रूपी और अरूपी भेद से दो प्रकार के अजीव पदार्थों का भी कथन किया गया है। टीका-प्रस्तुत गाथा में आरम्भ किए गए विषय का उपसंहार करते हुए उसका संक्षेप से. वर्णन कर दिया गया है। जैसे कि-जीवतत्त्व के संसारी और सिद्ध ये दो भेद हैं, जिनका कि ऊपर विस्तार से वर्णन किया जा चुका है तथा रूपी और अरूपी भेद से अजीव तत्त्व भी दो प्रकार का माना गया है, जिसका कि पहले ही अच्छी तरह से वर्णन हो चुका है। ___तात्पर्य यह है कि अध्ययन के आरम्भ में शिष्यों को सम्बोधन करके कहा गया था कि तुम जीव और अजीव तत्त्व के विभाग को श्रवण करो, सो उसी के अनुसार इस अध्ययन में उस विषय का विस्तृत वर्णन कर दिया गया है. यही इस गाथा का भाव है। क्या श्रवणमात्र से ही यह जीव कृतार्थ हो जाता है, या इसके लिए कोई और कर्त्तव्य भी है, अब इसके सम्बन्ध में कहते हैं- . इय जीवमजीवे य, सोच्चा सहिऊण य । सव्वनयाणमणुमए, रमेज्ज संजमे मुणी ॥ २५० ॥ इति जीवानजीवांश्च, श्रुत्वा · श्रद्धाय च । सर्वनयानामनुमते, रमेत संयमे मुनिः ॥ २५० ॥ • पदार्थान्वयः-इय-इस प्रकार, जीव-जीव, य-और, अजीवे-अजीव के स्वरूप को, सोच्चा-सुनकर, य-तथा, सद्दहिऊण-श्रद्धान करके, सव्वनयाणं-सर्व नयों के, अणुमए-अनुकूल होकर, मुणी-मुनि, संजमे-संयम में, रमेज्ज-रमण करे। मूलार्थ-इस प्रकार जीव और अजीव के स्वरूप को सुनकर तथा हृदय में दृढ़ निश्चय कर सर्व नैगमादि नयों के अनुसार होकर भिक्षु संयम में रमण करे। टीका-इस गाथा में जीवादि पदार्थों का श्रवण करके उन पर सम्यक् श्रद्धान लाते हुए स्याद्वाद और नयश्रुत के अनुसार संयम के अनुष्ठान का उपदेश किया गया है। यदि संक्षेप से कहें तो इस अध्ययन में ज्ञान और दर्शन पूर्वक चारित्र की आराधना करने का आदेश दिया गया है; अर्थात् सम्यक्-दर्शन और उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४७६] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अन्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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