SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 486
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान पूर्वक ही चारित्र का पालन करना चाहिए, तथा उत्सर्ग, अपवाद और विधिवाद आदि का अनुसरण करना भी नितान्त आवश्यक है। इसी के लिए नय शब्द का उल्लेख किया गया है। अब संयमरत मुनि के अन्य कर्त्तव्यों का वर्णन करते हैं, यथा तओ बहूणि वासाणि, सामण्णमणुपालिया । इमेण कमजोगेणं, अप्पाणं संलिहे मुणी ॥ २५१ ॥ ततो बहूनि वर्षाणि, श्रामण्यमनुपाल्य । ___ अनेन क्रमयोगेन, आत्मानं संलिखेन्मुनिः ॥ २५१ ॥ पदार्थान्वयः-तओ-तदनन्तर, बहूणि-बहुत, वासाणि-वर्षों तक, सामण्णं-श्रमणधर्म को, अणुपालिय-अनुपालन करके, इमेण-इस, कमजोगेणं-क्रमयोग से, मुणी-साधु, अप्पाणं-अपनी आत्मा को, संलिहे-द्रव्य और भाव से कृश करने का यत्न करे। ___ मूलार्थ-तदनन्तर बहुत वर्षों तक संयम का पालन करके इस क्रमयोग से मुनि अपनी आत्मा को द्रव्य और भाव से कृश करे। टीका-इस गाथा में संलेखना और उसके काल का विधान किया गया है। तात्पर्य यह है कि जब मुनि को दीक्षित हुए बहुत वर्ष व्यतीत हो जाएं, तथा श्रुत-वाचना आदि के द्वारा उसने श्रीसंघ का भूरि-भूरि उपकार भी कर दिया हो और अपने शिष्यवर्ग को भी उपकार के लिए तैयार कर दिया हो, तब वह संलेखना में प्रवृत्त होने का यत्न करे, अर्थात् तप के द्वारा अपनी आत्मा को कृश करने का उद्योग करे। इस कथन से यह भली-भांति प्रमाणित होता है कि साधु, संलेखना तो करे, परन्तु दीक्षित होने के साथ ही नहीं, किन्तु बहुत वर्षों के बाद; अर्थात् श्रुतादि के द्वारा धर्म की प्रभावन करने के पश्चात् संलेखना में प्रवृत्ति करे। इसी आशय से 'बहूणि वासाणि' यह पद दिया गया है। अत: जब निरतिचार संयम की आराधना करते-करते वर्षों का समय व्यतीत हो गया हो, तब संलेखना के लिए उद्यत होना चाहिए, यही इस गाथा का निष्कर्ष है। परन्तु यह भी एकान्त नियम नहीं है, क्योंकि स्वल्प-वय के मुनि में अर्थात् जिसका आयुकाल बहुत कम शेष रह गया हो, उसमें इसका अपवाद है। अब संलेखना के उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य स्वरूपों का वर्णन करते हैं बारसेव उ वासाइं, संलेहुक्कोसिया भवे । ... संवच्छरं मज्झिमिया, छम्मासा य जहन्निया ॥ २५२ ॥ द्वादशैव तु वर्षाणि, संलेखोत्कृष्टा भवेत् । संवत्सरं मध्यमिका, षण्मासा च जघन्यका ॥ २५२ ॥ पदार्थान्वयः-बारसेव-बारह ही, वासाइं-वर्षों की, संलेहा-संलेखना, उक्कोसिया-उत्कृष्ट, भवे-होती है, संवच्छरं-वर्ष प्रमाण, मज्झिमिया-मध्यम, य-और, छम्मासा-छः महीनों की, जहन्निया-जघन्य होती है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४७७] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy