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________________ अब अनुत्तर विमानवासी देवों के अन्तरमान का वर्णन करते हैं संखेज्जसागरुक्कोसं, वासपुहुत्तं जहन्नयं । अणुत्तराणं देवाणं, अंतरेयं वियाहिंयं ॥ २४७ ॥ सङ्ख्येयसागरोत्कृष्ट, वर्षपृथक्त्वं जघन्यकम् । अनुत्तराणां देवानाम्, अन्तरमिदं व्याख्यातम् ॥ २४७ ॥ पदार्थान्वयः-अणुत्तराणं-अनुत्तर विमानवासी, देवाणं-देवों का, जहन्नयं-जघन्य, वासपुहुत्तं-पृथक् वर्ष और, उक्कोसं-उत्कृष्ट, संखेजसागरं-संख्येय सागरों का, अंतरेयं-यह अन्तरकाल, वियाहियं-वर्णन किया गया है। मूलार्थ-अनुत्तर विमानवासी देवों का जघन्य अन्तरकाल पृथक् वर्ष और उत्कृष्ट संख्येय सागरों का कथन किया गया है। ____टीका-विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित, इन चार विमानों में रहने वाले देवों के जघन्य और उत्कृष्ट अन्तराल का प्रस्तुत गाथा में वर्णन किया गया है। वह उत्कृष्ट अर्थात् अधिक से अधिक तो संख्येय सागरों का माना गया है और जघन्य अर्थात् कम से कम पृथक् वर्ष का प्रतिपादन किया गया है। जैन-परिभाषा में २ से ९ तक के अंकों की पृथक् संज्ञा है। तथा च-जघन्यतया, २ से ९ वर्षों की आयु वाला चारों अनुत्तर विमानों में जा सकता है और उत्कृष्टता में संख्यात सागरों के पश्चात् जा सकता है, यही इस गाथा का फलितार्थ है। छब्बीसवें सर्वार्थसिद्धि-नामक देवलोक में जिन देवों का निवास होता है वे सब एकावतारी अर्थात् एक बार मनुष्य-जन्म धारण करके मोक्ष में जाने वाले होते हैं। . . अब प्रकारान्तर से इनका वर्णन करते हैं, यथा एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । . संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो ॥ २४८ ॥ एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसस्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥ २४८ ॥ पदार्थान्वयः-एएसिं-इन देवों के, वण्णओ-वर्ण से, च-और, गंधओ-गन्ध से, रसफासओ-रस और स्पर्श से, वा-तथा, संठाणादेसओ-संस्थान के आदेश से, वि-भी, सहस्ससो-हजारों, विहाणाइं-भेद हो जाते हैं, एव-पादपूर्ति में है। मूलार्थ-इन देवों के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानादि की अपेक्षा से हजारों अवान्तर भेद हो जाते हैं। टीका-उक्त चारों प्रकार के देवों के-वर्ण, गन्ध और रसादि के तारतम्य से भी अनेकानेक अर्थात् असंख्य भेद हो जाते हैं। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४७५] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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