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मूलार्थ-आठवें ग्रैवेयक में जघन्य स्थिति २९ सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति ३० सागरोपम की कही गई है।
टीका-इस गाथा में तीसरे त्रिक के दूसरे देवलोक में अर्थात् आठवें ग्रैवेयक में उत्पन्न होने वाले देवों की आयु का प्रमाण बताया गया है। अब नवमें ग्रैवेयक के विषय में कहते हैं
सागरा इक्कतीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । नवमम्मि जहन्नेणं, तीसई सागरोवमा ॥ २४१ ॥ सागराणि एकत्रिंशत्तु, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् ।
नवमे जघन्येन, त्रिंशत्सागरोपमाणि ॥ २४१ ॥ पदार्थान्वयः-नवमम्मि-नवम ग्रैवेयक में, उक्कोसेण-उत्कृष्ट, ठिई-स्थिति, इक्कतीसं-इकत्तीस, सागरा-सागर की, भवे-होती है, जहन्नेणं-जघन्य स्थिति, तीसई सागरोवमा-तीस सागरोपम की होती है।
__मूलार्थ-नवम ग्रैवेयक देवलोक के देवों की जघन्य आयु ३० सागरोपम की और उत्कृष्ट ३१ सागरोपम की होती है। ____टीका-इस गाथा में तीसरे त्रिक के तीसरे देवलोक में अर्थात् नवमे ग्रैवेयक और इक्कीसवें देवलोक में रहने वाले देवों की उत्कृष्ट और जघन्य आयु का वर्णन किया गया है। प्रथम त्रिक में १११, दूसरे त्रिक में १०७ और तीसरे में १०० विमान हैं।
___ अव्यवहार-राशि की अपेक्षा व्यवहार-राशि वाले जीव २१वें देवलोक तक अनन्त बार जा आए हैं, इसलिए देवलोक की प्राप्ति कोई दुर्लभ नहीं है, किन्तु सम्यक्त्व का प्राप्त होना दुर्लभ है। अब चारों अनुत्तर विमानों के विषय में कहते हैं
तेत्तीसा सागराइं, उक्कोसेण ठिई भवे ।। चउसुपि विजयाईसु, जहन्नेणेक्कतीसई ॥ २४२ ॥
त्रयस्त्रिंशत् सागराणि, उत्कर्षेण स्थितिर्भवेत् ।
चतुर्ध्वपि विजयादिषु, जघन्येनैकत्रिंशत् ॥ २४२ ॥ पदार्थान्वयः-चउसुंपि-चारों ही, विजयाईसु-विजयादि विमानों में, जहन्नेण-जघन्य, इक्कतीसई-इकत्तीस सागरोपम की, उक्कोसेण-उत्कृष्ट, ठिई-स्थिति, तेत्तीसा सागराइं-तेंतीस सागरोपम की, भवे-होती है।
मूलार्थ-विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित, इन चारों ही विमानों के देवों की जघन्य आयु ३१ सागरोपम की और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की होती है। .
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४७२] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं