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टीका-यहां पर गाथा के मूलार्थ में जो हर एक नाम के अन्त में कुमार शब्द का उल्लेख किया गया है उसका आशय यह है कि वे देव, कुमारवत् कान्त दर्शनों वाले हैं, सुकुमार हैं और मृदु-ललित गति वाले हैं। इसके अतिरिक्त वे श्रृंगारादि अभिजात-रूप-क्रियाएं भी कुमारों की तरह ही करते हैं तथा उनका वेष, भाषा, आभरण, प्रहरणावरण, यान, वाहन इत्यादि सब प्रकार का व्यवहार कुमारों की भांति ही होता है, इसलिए उनको कुमार कहा गया है। अब व्यन्तर देवों के सम्बन्ध में कहते हैं, यथा
पिसायभूया जक्खा य, रक्खसा किन्नरा किंपुरिसा । महोरगा य गंधव्वा, अट्ठविहा वाणमंतरा ॥ २०६ ॥
पिशाचभूता यक्षाश्च, राक्षसाः किन्नराः किंपुरुषाः ।
_____ महोरगाश्च गन्धर्वाः, अष्टविधा व्यन्तराः ॥ २०६ ॥ पदार्थान्वयः-पिसाय-पिशाच, भूया-भूत, य-और, जक्खा-यक्ष, रक्खसा-राक्षस, किन्नरा-किन्नर, किंपुरिसा-किंपुरुष, महोरगा-महोरग, य-और, गंधव्वा-गन्धर्व, अट्ठविहा-आठ प्रकार के, वाणमंतरा-व्यन्तर देव हैं।
मूलार्थ-आठ प्रकार के व्यन्तर देव कहे हैं। यथा-१. पिशाच, २. भूत, ३. यक्ष, ४. राक्षस, ५. किन्नर, ६. किंपुरुष, ७. महोरग और ८. गन्धर्व, ये आठ भेद हैं।
टीका-रत्नप्रभा पृथिवी का जो प्रथम सहस्र योजन का रत्नकांड है, उसमें से सौ योजन नीचे छोड़कर और सौ योजन ऊपर छोड़कर मध्यं के आठ सौ योजन में असंख्यात व्यन्तरों के नगर प्रतिपादन किए गए हैं। तथा द्वीप-समुद्रों में इनकी असंख्य राजधानियां हैं। इनकी उत्पत्ति भी इन्हीं स्थानों में मानी गई है। यद्यपि व्यन्तर देव १६ जाति के माने गये हैं, तथापि यहां पर महर्द्धिक की अपेक्षा आठ ही प्रकार के व्यन्तरों का ग्रहण किया गया है। अब ज्योतिषियों के विषय में कहते हैं
चंदा सूरा य नक्खत्ता, गहा तारागणा तहा । ठियावि चारिणो चेव, पंचहा जोइसालया ॥ २०७॥ चन्द्राः सूर्याश्च नक्षत्राणि, ग्रहास्तारागणास्तथा ।
स्थिताऽपि चारिणश्चैव, पञ्चधा ज्योतिषालयाः ॥ २०७ ॥ पदार्थान्वयः-चंदा-चन्द्र, य-और, सूरा-सूर्य, नक्खत्ता-नक्षत्र, गहा-ग्रह, तहा-तथा, तारागणा-तारागण, ठियावि-स्थित भी, च-और, चारिणो-चलने वाले, पंचहा-पांच प्रकार के, जोइसालया-ज्योतिषी देवों के आलय-स्थान हैं, एव-पादपूर्ति में।
मूलार्थ-ज्योतिषी देव पांच प्रकार के हैं-चंद्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह तथा तारागण। ये पांच मनुष्य क्षेत्र के बाहर तो स्थिर हैं और आभ्यन्तर में चर हैं।
टीका-पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों के पांच आलय अर्थात् स्थान हैं। यथा-चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागण, ये पांचों ही सार्द्ध द्वीप-समुद्र की सीमा में तो चर हैं अर्थात् गति वाले हैं और सार्द्ध
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४५७] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं