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द्वीप-समुद्र के बाहर उक्त पांचों प्रकार के ज्योतिषी देव स्थिर हैं। इस गतिशील सूर्यादि के कारण ही काल का विभाग किया जाता है और इसी से आयु का परिमाण किया जाता है। मनुष्य क्षेत्र का सारा ही ज्योतिष चक्र मेरु की प्रदक्षिणा करता है। यहां पर 'जोइसालय-ज्योतिषालय' से ज्योतिषी देव अभिप्रेत हैं। अब वैमानिक देवों के विषय में कहते हैं, यथा
वेमाणिया उजे देवा, दविहा ते वियाहिया । कप्पोवगा य बोधव्वा, कप्पाईया तहेव य ॥ २०८ ॥
वैमानिकास्तु ये देवाः, द्विविधास्ते व्याख्याताः ।
कल्पोपगाश्च बोद्धव्याः, कल्पातीतास्तथैव च ॥ २०८ ॥ पदार्थान्वयः-वेमाणिया-वैमानिक, जे-जो, देवा-देव हैं, ते-वे, दुविहा-दो प्रकार के, वियाहिया-कथन किए गए हैं, कप्पोवगा-कल्पोत्पन्न, य-और, तहेव-उसी प्रकार, कप्पाईया-कल्पातीत, बोधव्वा-जानने चाहिएं, उ-प्राग्वत्।
मूलार्थ-कल्पोत्पन्न और कल्पातीत अर्थात् कल्प से रहित, इस प्रकार वैमानिक देव दो प्रकार के कथन किए गए हैं। ___टीका-तीर्थंकरादि देवों ने दो प्रकार के वैमानिक देव कहे हैं। उनमें पहले कल्पोत्पन्न हैं और दूसरे कल्पातीत कहे जाते हैं। कल्प-देवलोक में सामानिक, त्रयस्त्रिंशत्, लोकपाल, सेनापति आदि देवों के द्वारा भली प्रकार से राज्य-प्रबन्ध हो रहा है और वे मर्यादापूर्वक क्रियानुष्ठान में रत रहते हैं।
दूसरे कल्पातीत देवलोक हैं जो कि नव ग्रैवेयक और पांच अनुत्तर देव विमान हैं। इन देवलोकों में कल्प-मर्यादा नहीं है। कारण कि वहां पर स्वामी और सेवक का भाव ही नहीं होता, अत: वहां पर उक्त कल्प की आवश्यकता नहीं है। जैसे कि योगियों वा निर्ग्रन्थों के लिए राजपुरुषों की कोई आवश्यकता नहीं होती। अब शास्त्रकार कल्प-देवलोक के सम्बन्ध में कहते हैं, यथा
कप्पोवगा बारसहा, सोहम्मीसाणगा तहा । सणंकुमारमाहिंदा, बम्भलोगा य लंतगा ॥ २०९ ॥ महासुक्का सहस्सारा, आणया पाणया तहा । आरणा अच्चुया चेव, इइ कप्पोवगा सुरा ॥ २१० ॥ कल्पोपगा द्वादशधा, सौधर्मेशानगास्तथा । सनत्कुमारा माहेन्द्राः, ब्रह्मलोकाश्च लान्तकः ॥ २०९ ॥ महाशुक्राः सहस्राराः, आनताः प्राणतास्तथा ।
आरणा अच्युताश्चैव, इति कल्पोपगाः सुराः ॥ २१० ॥ पदार्थान्वयः-कप्पोवगा-कल्पोत्पन्न देव, बारसहा-द्वादश प्रकार के हैं, सोहम्म-सौधर्म देवलोक,
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४५८] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं