SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 452
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलार्थ-उक्त जलचरों के वर्ण से, गन्ध से, रस और स्पर्श से तथा संस्थान से हजारों भेद होते हैं। टीका-वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शादि के तारतम्य से जलचर जीवों के असंख्य भेद हो जाते हैं। अब स्थल-चर जीवों का निरूपण करते हैं, यथा चउप्पया य परिसप्पा, दुविहा थलयरा भवे । चउप्पया चउविहा, ते मे कित्तयओ सुण ॥ १७९ ॥ . चतुष्पदाश्च परिसर्पाः, द्विविधाः स्थलचरा भवेयुः । चतुष्पदाश्चतुर्विधाः, तान् मे कीर्तयतः श्रृणु ॥ १७९ ॥ पदार्थान्वयः-थलयरा-स्थलचर, दुविहा-दो प्रकार के, भवे-होते हैं, चउप्पया-चतुष्पाद, य-और, परिसप्पा-परिसर्प, चउप्पया-चतुष्पाद, चउविहा-चार प्रकार के हैं, ते-उनके भेद, कित्तयओ-कथन करते हुए, मे-मुझ से, सुण-सुनो। मूलार्थ-हे शिष्यो ! स्थलचर जीव दो प्रकर के हैं-चतुष्पाद और परिसर्प, इनमें जो चतुष्पाद हैं, वे चार प्रकार के हैं, अब तुम मुझसे उनके भेदों को श्रवण करो। टीका-चतुष्पाद और परिसर्प ये दो भेद स्थलचर जीवों के हैं। इनमें चतुष्पाद चार प्रकार के हैं। आचार्य अपने शिष्यों से कहते हैं कि उनके भेदों को मैं तुम्हारे प्रति कहता हूं, तुम सावधान होकर सुनो! चतुष्पाद-चार पैरों वाले। परिसर्प-रेंगकर चलने वाले सर्पादि। “परि समन्तात् सर्पन्तीति परिसः ' अर्थात् जो सर्व प्रकार से सारे शरीर का संचालन करते हुए चलते हैं उनको परिसर्प कहते हैं। अब चतुष्पदों के चार भेद बताते हैं, यथा एगखुरा दुखुरा चेव, गंडीपय सणप्पया । हयमाई गोणमाई, गयमाई सीहमाइणो ॥ १८० ॥ एकखुरा द्विखुराश्चैव, गण्डीपदाः सनखपदाः । हयादयो गोणादयः, गजादयः सिंहादयः ॥ १८० ॥ पदार्थान्वयः-एगखुरा-एक खुर वाले, च-और, दुखुरा-दो खुरों वाले, गंडीपय-गंडीपद वाले, सणप्पया-सनख पद वाले, हयमाई-हय-अश्व आदि, गोणमाई-गोण आदि-बलीवादि, गयमाई-गज आदि और, सीहमाइणो-सिंह आदि।। मूलार्थ-एक खुर वाले, दो खुर वाले, गंडीपद और सनखपद वाले, ये चार प्रकार के स्थलचर जीव हैं। एक खुर वाले-अश्वादि। दो खुर वाले, गौ-महिषी आदि। गंडीपद वाले-हस्ती आदि। सनखपद-नखयुक्त पैरों वाले, सिंह, श्वान आदि।। ___टीका-स्थल में रहने वाले पञ्चेन्द्रिय जीवों के निरूपण में चतुष्पाद के चार भेद वर्णन किए गए हैं : १. एकखुरा-एक खुर वाले-अश्वादि। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४४३] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy