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________________ करोड़ की, वियाहिया - कही गई है। मूलार्थ - जलचरों की जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट पृथक्त्व पूर्व करोड़ की प्रतिपादित की गई है। टीका - जलचर जीवों की कायस्थिति निरन्तर एक ही जाति का शरीर धारण रूप अर्थात् कम से कम अन्तर्मुहूर्त्त -प्रमाण और अधिक से अधिक पृथक्त्व पूर्व कोटि का वर्णन किया गया है। २ से लेकर ९ तक की पृथक् संज्ञा है । तात्पर्य यह है कि यदि कोई जलचर जीव मरकर अपनी जाति में ही उत्पन्न होता रहे तो अधिक से अधिक करोड़ - करोड़ पूर्व के आठ भव कर सकता है। इसके अतिरिक्त एक उसका अपना पहला भव होता है। इस प्रकार कुल ९ भव हो जाते हैं। "पृथक्त्व पूर्व" यह पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ ऊपर लिखे अनुसार जानना चाहिए । अब इनके अन्तर - काल के विषय में कहते हैं अनंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढम्म सकाए, जलयराणं अंतरं ॥ १७७ ॥ अनन्तकालमुत्कृष्टम्, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यकम् । वित्यक्ते स्वके काये, जलचराणामन्तरम् ॥ १७७ ॥ पदार्थान्वयः - जलयराणं - जलचर जीवों का, सए काए - स्वकाय के, विजढम्म - त्यागने पर, जहन्नयं-जघन्य, अंतोमुहुत्तं - अन्तर्मुहूर्त, उक्कोसं - उत्कृष्ट, अनंतकालं - अनन्तकाल का, अंतरं- अन्तर होता है। मूलार्थ - जलचर जीवों का अपनी काय को छोड़कर फिर उसी काय को धारण करने तक का अर्थात् जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का माना गया है। टीका - जलचर जीव मर कर अन्य स्थान में गया हुआ, वहां से मर कर फिर वह जलचर में यदि आता है तो उसके लिए जघन्य अथवा उत्कृष्ट कितना काल अपेक्षित है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि कम से कम अन्तर्मुहूर्त्त और अधिक से अधिक अनन्तक़ाल तक का समय लग जाता है। तात्पर्य यह है कि कम से कम अन्तर्मुहूर्त के बाद आ सकता है और अधिक से अधिक अनन्तकाल का समय व्यतीत हो जाता है। अब प्रकारान्तर से इनके भेदों का वर्णन करते हैं एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ १७८ ॥ एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसस्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥ १७८ ॥ पदार्थान्वयः - एएसिं-इन जलचर जीवों के, वण्णओ-वर्ण से, च-और, गंधओ-गंध से, रसफासओ-रस और स्पर्श से, वा- तथा, संठाणादेसओवि - संस्थान के आदेश से भी, सहस्ससी - हजारों, विहाणाई - भेद होते हैं, एव - पादपूर्ति में है । उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४४२] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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