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________________ सन्ततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥ १७४ ॥ पदार्थान्वयः - संतइं- संतति की, पप्प - अपेक्षा से, अणाईया - अनादि, य-और, अपज्जवसियाविअपर्यवसित भी हैं, ठिइं- स्थिति की, पडुच्च-प्रतीति से, साईया - सादि, य-और, सपज्जवसियाविसपर्यवसित भी हैं। मूलार्थ - ये जीव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि - अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि और सान्त हैं। टीकाऔर सान्त हैं। - जलचर जीव प्रवाह की दृष्टि से तो अनादि - अनन्त हैं, किन्तु स्थिति की अपेक्षा से सादि अब इनकी भवस्थिति का वर्णन करते हैं - एगा य पुव्वंकोडी उ, उक्कोसेण वियाहिया । आउठिई. जलयराणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ १७५ ॥ एका च पूर्वकोटी, उत्कर्षेण व्याख्याता । आयुः स्थितिर्जलचराणाम्, अन्तर्मुहूर्त्तं जघन्यका ॥ १७५ ॥ पदार्थान्वयः - एगा - एक, पुव्वकोडी- पूर्व करोड़ की, जलयराणं- जलचरों की, आउठिईआयुस्थिति, उक्कोसेण- उत्कृष्ट रूप से, वियाहिया - कथन की गई है, य-और, जहन्निया - जघन्य, अंतोमुहुत्तं - अन्तर्मुहूर्त्त की मानी है। • मूलार्थ - जलचर जीवों की जघन्य आयु- स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की कथन की गई है। टीका - इस गाथा में जलचर जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया गया है। वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की मानी गई है, परन्तु मध्यम स्थिति का कोई नियम नहीं, अर्थात् वह अन्तर्मुहूर्त से अधिक और एक करोड़ पूर्व से कम किसी समय में भी पूरी हो सकती है। ०+७० लाख ५६ हजार वर्ष को एक करोड़ से गुणा करने पर ७०५६०००००००००० वर्षों का एक पूर्व होता है। ऐसे एक करोड़ पूर्वी की उत्कृष्ट आयु जलचर जीवों की है। अब इनकी कायस्थिति का वर्णन करते हैं, यथा पुव्वकोडिपुहुत्तं तु, उक्कोसेण वियाहिया । कायठिई जलयराणं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥ १७६ ॥ पूर्वकोटिपृथक्त्वन्तु, उत्कर्षेण व्याख्याता । काय स्थितिर्जलचराणाम्, अन्तर्मुहूर्त्तं जघन्यका ॥ १७६ ॥ पदार्थान्वयः - जलयराणं - जलचरों की, कायठिई - कायस्थिति, जहन्नयं - जघन्य, अंतोमुहुत्तं - अन्तर्मुहूर्त्त की है, तु-और, उक्कोसेण - उत्कृष्टता से, पुव्वकोडिपुहुत्तं - पृथक्त्व पूर्व उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४४१ ] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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