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________________ हैं। इसी प्रकार जालक और चन्दन ये भी द्वीन्द्रिय जीवों में से हैं, परन्तु अप्रसिद्ध हैं। इस प्रकार द्वीन्द्रिय जीवों के अनेक भेद हैं जिनका कि यहां पर संकेतमात्र कर दिया गया है। सारांश यह है कि जिन जीवों के स्पर्श और रसना ये दो इन्द्रियां होती हैं वे द्वीन्द्रिय जीव कहलाते हैं। अब इनके असादित्व और सादित्व का उल्लेख करते हैं, यथा संतई पप्प णाईया, अपज्जवसियावि य ।। ठिई पडुच्च साईया, सपज्जवसियावि य ॥ १३१ ॥ सन्ततिं प्राप्यानादिकाः, अपर्यवसिता अपि च । स्थितिं प्रतीत्य सादिकाः, सपर्यवसिता अपि च ॥ १३१ ॥ पदार्थान्वयः-संतइं-सन्तान की, पप्प-अपेक्षा से, अणाईया-अनादि, य-और, अपज्जवसियावि-अपर्यवसित भी हैं, ठिइं-स्थिति की, पडुच्च-प्रतीति से, साईया-सादि, य-और, सपज्जवसियावि-सपर्यवसित भी हैं। मूलार्थ-द्वीन्द्रिय जीव प्रवाह की अपेक्षा से तो अनादि और अनन्त हैं, किन्तु स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं। ___टीका-सन्तान अर्थात् प्रवाह की ओर दृष्टि डालने से तो दो इन्द्रियों वाले जीवों का कभी भी अभाव नहीं होता, अर्थात् न इनकी आदि उपलब्ध होती है और न अन्त ही दृष्टिगोचर होता है, इसलिए ये अनादि और अनन्त माने गए हैं, परन्तु इनकी आयु सम्बन्धी स्थिति की ओर दृष्टि देने से ये आदि और अन्त दोनों से युक्त प्रतीत होते हैं, अतः अपेक्षा भेद से ये अनादि-अनन्त और सादि-सान्त उभयरूप हैं। ___ अब इनकी सादि-सान्तता को सिद्ध करने वाली भवस्थिति के विषय में कहते हैं, यथा वासाइं बारसा चेव, उक्कोसेण वियाहिया । बेइंदियआउठिई, अंतोमुहत्तं जहन्निया ॥ १३२ ॥ वर्षाणि द्वादश चैव, उत्कर्षेण व्याख्याता । द्वीन्द्रियायु-स्थितिः, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ॥ १३२ ॥ पदार्थान्वयः-बेइंदियआउठिई-द्वीन्द्रिय जीवों की आयुस्थति, उक्कोसेण-उत्कृष्टता से, बारसा-द्वादश, वासाइं-वर्षों की है और, जहन्निया-जघन्य स्थिति, अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त की, वियाहिया-कथन की गई है। मूलार्थ-द्वीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट आयु-स्थिति द्वादश वर्ष की प्रतिपादन की गई है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की मानी गई है। ___टीका-इस गाथा में द्वीन्द्रिय जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट आयु का दिग्दर्शन कराया गया है। तात्पर्य यह है कि दो इन्द्रियों वाले जीवों की आयु, कम से कम तो अन्तर्मुहूर्त की और अधिक से अधिक १२ वर्ष की होती है। इसी को भवस्थिति कहते हैं। अब इनकी कायस्थिति का वर्णन करते हैं, यथा उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४२३ ] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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