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पल्लोयाणल्लया, चेव, तहेव य वराडगा । जलूगा जालगा चेव, चंदणा य तहेव य ॥ १२९ ॥ इइ बेइंदिया एए, णेगहा एवमायओ । लोगेगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ वियाहिया ॥ १३० ॥
कृमयः सुमङ्गलाश्चैव, अलसा मातृवाहकाः । वासीमुखाश्च शुक्तयः, शङ्खाः शङ्खनकास्तथा ॥ १२८ ॥ पल्लका अनुपल्लकाश्चैव, तथैव च वराटकाः । जलौका जालकाश्चैव, चन्दनाश्च तथैव च ॥ १२९ ॥ इति द्वीन्द्रिया एते, अनेकधा एवमादयः । ....
लोकैकदेशे ते सर्वे, न सर्वत्र व्याख्याताः ॥ १३० ॥ पदार्थान्वयः-किमिणो-कृमी, च-और, सोमंगला-सुमंगल, अलसा-अलसिया, माइवाहया-मातृवाहक-घुण, य-और, वासीमुहा-वासीमुख, सिप्पीया-शुक्ति-सीप, संखा-शंख, तहा-तथा, संखणगा-छोटे शंख-घोंघे आदि, एव-पादपूर्ति में है, पल्लोयाणुल्लया-पल्लक और अनुपल्लका, य-फिर, तहेव-उसी प्रकार, वराडगा-वराटक-कौड़ियां, जलूगा-जोंक, च-और, जालगा-जालक-जीवविशेष, तहेव-उसी प्रकार, चंदणा-चंदनिया, एव-च-पूर्ववत्, इइ-इस प्रकार, एए-ये, बेइंदिया-द्वीन्द्रिय जीव, णेगहा-अनेक प्रकार के, एवमायओ-इत्यादि, ते-वे, सव्वे-सब, लोगेगदेसे-लोक के एक भाग में, वियाहिया-प्रतिपादन किए गए हैं, न सव्वत्थ-सर्वत्र नहीं।
मूलार्थ-कृमि, सुमंगल, अलसिया, मातृवाहक, वासीमुख, सीप, शंख और लघुशंख-घोंघे आदि, तथा पल्लक, अनुपल्लक, कपर्दिका अर्थात् कौड़ियां, जोंक; जालक और चंदनिया इत्यादि अनेक प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव कथन किए गए हैं। ये सब लोक के एकदेश में अर्थात् भाग-विशेष में ही रहते हैं, सर्वत्र नहीं।
टीका-इस गाथात्रय में द्वीन्द्रिय जीवों के नामों का निर्देश और उनकी एकदेशता का वर्णन किया गया है। ये द्वीन्द्रिय जीव, सूक्ष्म वायुकाय आदि की भांति सर्व-लोक-व्यापी नहीं हैं, किन्तु लोक के एक देश में रहते हैं। , कृमि-विष्ठा आदि अपवित्र पदार्थों में उत्पन्न होने वाले जीव।
सोमंगल-यह कोई द्वीन्द्रिय जाति का जीव विशेष है।
अलस-यह वर्षाकाल में पृथिवी में उत्पन्न होने वाला जीव है, इसको अलसिया और पंजाबी में 'गंडोआ' कहते हैं।
मातृवाहक-काष्ठ को भक्षण करने वाला जीव-घुण। वासीमुख-कोई द्वीन्द्रिय जाति का जीवविशेष है। शुक्ति-सीप, शंख और लघुशंख, घोंघे आदि सब प्रसिद्ध ही हैं। पल्लक, अनुपल्लक-ये दोनों अप्रसिद्ध से हैं तथा वराटक (कौडी) और जोंक आदि प्रसिद्ध
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४२२] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं