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________________ संखिज्जकालमुक्कोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्निया । बेइंदियकायठिई, तं कायं तु अमुंचओ ॥ १३३ ॥ सङ्ख्येयकालमुत्कृष्टा, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका । द्वीन्द्रियकायस्थितिः, तं कायन्त्वमुञ्चताम् ॥ १३३ ॥ पदार्थान्वयः-बेइंदियकायठिई-दो इन्द्रियों वाले जीवों की कायस्थिति, तं कायं-उस काय को, अमुंचओ-न छोड़ते हुए, जहन्निया-जघन्य, अंतोमुहुत्तं-अंतर्मुहुर्त की, उक्कोसा-उत्कृष्ट, संखिज्जकालंसंख्यातकाल की है। मूलार्थ-द्वीन्द्रिय जीव यदि द्वीन्द्रिय जाति में ही जन्म-मरण करते रहें तो उनकी इस कायस्थिति का जघन्य काल तो अन्तर्मुहूर्त्तमात्र है और उत्कृष्ट संख्यात काल है। ____टीका-उसी काया में जन्म-मरण करते रहना कायस्थिति है। द्वीन्द्रिय जीव की, यदि वे अपनी काया का परित्याग करके अन्यत्र न जाएं तब तक की कायस्थिति कम से कम अन्तर्मुहूर्त की और अधिक से अधिक संख्यातकाल तक की मानी जाती है। इससे द्वीन्द्रिय जीवों की सादि-सान्तता भी भली प्रकार से प्रमाणित हो जाती है। अब इन जीवों के अन्तरकाल के विषय में कहते हैं अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । . बेइंदियजीवाणं, अंतरं च वियाहियं ॥ १३४ ॥ अनन्तकालमुत्कृष्टम्, अन्तर्मुहर्त जघन्यकम् । द्वीन्द्रियजीवानाम्, अन्तरञ्च व्याख्यातम् ॥ १३४ ॥ पदार्थान्वयः-बेइंदियजीवाणं-द्वीन्द्रिय जीवों का, जहन्नयं-जघन्य, अंतीमुहत्तं-अन्तर्मुहूर्त और, उक्कोसं-उत्कृष्ट, अणंतकालं-अनन्तकाल का, अंतरं-अन्तरकाल, वियाहियं कथन किया गया है, च-पादपूर्ति के लिए है। मूलार्थ-द्वीन्द्रिय जीवों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक का है। टीका-अपनी प्रथम काया को छोड़कर कायान्तर में गया हुआ द्वीन्द्रिय शरीर को धारण करे, इसके लिए जघन्य अन्तरकाल तो अन्तर्मुहूर्त का माना जाता है और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक का स्वीकार किया गया है, अर्थात् उस जीव को फिर से द्वीन्द्रिय शरीर में आने के लिए कम से कम तो अन्तर्मुहूर्त जितना समय लगता है और अधिक से अधिक अनन्तकाल जितना समय अपेक्षित है। अब इनके विशेष भेदों के सम्बन्ध में कहते हैं एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो ॥ १३५ ॥ एतेषां वर्णतश्चैव, गन्धतो रसस्पर्शतः । संस्थानादेशतो वापि, विधानानि सहस्रशः ॥ १३५ ॥ . उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४२४] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइम अझंयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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