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अनेक कुलों या घरों से लाई हुई गोचरी को समुदान कहते हैं तथा भिक्षा के लिए भ्रमण करना "पिंडवाय-पिंडपात' कहलाता है।
अब लाए हुए आहार की भक्षणविधि के विषय में कहते हैं, यथा__ अलोले न रसे गिद्धे, जिब्भादंते अमुच्छिए । न रसट्ठाए भुजिज्जा, जवणट्ठाए महामुणी ॥ १७ ॥
अलोलो न रसे गृद्धः, दान्तजिह्वोऽमूच्छितः ।
न रसार्थं भुञ्जीत, यापनार्थं महामुनिः ॥ १७ ॥ पदार्थान्वयः-अलोले-अलोलुपी, रसे-रसविषयक, न-नहीं, गिद्धे-आसक्त, जिब्भादंते-जिह्वा का दमन करने वाला, अमुच्छिए-आहारविषयक मूर्छा अर्थात् आसक्ति से रहित, रसट्ठाए-रस के लिए अर्थात् स्वाद के लिए, न अँजिज्जा-भोजन न करे, अपितु, जवणट्ठाए-संयम-यात्रा के निर्वाहार्थ आहार करे, महामुणी-महान् मुनि अर्थात् आत्मा।
मूलार्थ-जिह्वा-इन्द्रिय पर काबू रखने वाला मननशील साधु रस का लोलुप न बने, अधिक स्वादु भोजन में आसक्त न हो, तथा रस के लिए अर्थात् स्वादेन्द्रिय की प्रसन्नता के लिए भोजन न करे, किन्तु संयम-निर्वाह के उद्देश्य से ही भोजन करे।
टीका-प्रस्तुत गाथा में साधु के लिए भोजन विषयिणी आसक्ति के त्याग का उपदेश दिया गया है। जैसे कि साधु कहीं से सरस भोजन मिलने पर प्रसन्न न हो और नीरस भोजन की प्राप्ति होने पर खिन्न न हो एवं सरस आहार की आकांक्षा भी न करे, किन्तु जिह्वा को वश में रखे। अतएव जो भी आहार मिले उसको शरीर-यात्रा के निर्वाहार्थ ही स्वीकार करे, किन्तु स्वादेन्द्रिय की तुष्टि के लिए आहार का ग्रहण न करे।
__ तात्पर्य यह है कि संयम की भली-भांति रक्षा हो सके, एतदर्थ ही साधु को भोजन का ग्रहण करना चाहिए, न कि शरीर को पुष्ट करने के लिए। .
“जिब्भादंते' इस शब्द में प्राकृत के कारण ही 'दंत-दान्त' शब्द का पर-निपात हुआ है, इसीलिए इसकी संस्कृत छाया “दान्तजिह्वः" की गई है।
अब अर्चना आदि के विषय में कहते हैं, यथा... अच्चणं रयणं चेव, वंदणं पूयणं तहा ।
इड्ढी-सक्कार-सम्माणं, मणसावि न पत्थए ॥ १८ ॥
अर्चनं रचनं चैव, वन्दनं पूजनं तथा ।
ऋद्धि-सत्कार-सन्मानं, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् ॥ १८ ॥ पदार्थान्वयः-अच्चणं-अर्चना, रयणं-स्वस्तिकादि की रचना, वंदणं-वन्दना, तहा-तथा, पूयणं-पूजन, इड्ढी-ऋद्धि, सक्कार-सत्कार और, सम्माणं-सन्मान-इन बातों की, मणसावि-मन से भी, न पत्थए-प्रार्थना न करे, च-समुच्चय में है।
मूलार्थ-अर्चना, रचना, वन्दना, पूजा, ऋद्धि, सत्कार और सन्मान, इन बातों की मुनि
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३५३] अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अज्झयणं