SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मन से भी इच्छा न करे। टीका-साधुवृत्ति का अनुसरण करने वाला मुनि निम्नलिखित बातों की मन से भी इच्छा न करे, अर्थात् ये बातें मुझे किसी न किसी प्रकार से प्राप्त हो जाएं, कभी ऐसा संकल्प भी न करे। जैसे कि लोग मेरा चन्दन और पुष्पादि से अर्चन करें, मेरे सम्मुख मोतियों के स्वस्तिकादि की रचना करें, मुझे विधिपूर्वक वन्दना करें और विशिष्ट सामग्री के द्वारा मेरी पूजा करें, वस्त्रादि से सत्कार और अभ्युत्थानादि से सन्मान एवं श्रावक की उपकरणरूप सम्पत् तथा आमदैषधि आदि ऋद्धि की मुझे प्राप्ति हो, इत्यादि। सारांश यह है कि साधु अपनी पूजा-सत्कार और मान-बड़ाई की कभी इच्छा न करे। तो फिर उसे क्या करना चाहिए, अब इस विषय में कहते हैं सुक्कज्झाणं झियाएज्जा, अणियाणे अकिंचणे । वोसट्ठकाए विहरेज्जा, जाव कालस्स पज्जओ ॥ १९ ॥ शुक्लध्यानं . ध्यायेत्, अनिदानोऽकिञ्चनः । व्युत्सृष्टकायो विहरेत्, यावत्कालस्य पर्यायः ॥ १९ ॥ पदार्थान्वयः-सुक्कज्झाणं-शुक्लध्यान को, झियाएज्जा-ध्यावे, अणियाणे-निदानरहित, अकिंचणे-अकिंचनतापूर्वक, वोसट्ठकाए-व्युत्सृष्टकाय होकर, विहरेज्जा-विचरे, जाव-जब तक, कालस्स-काल का, पज्जओ-पर्याय है-अर्थात् मृत्यु-समय-पर्यन्त। ... मूलार्थ-साधु मृत्यु-समय-पर्यन्त अकिंचन अर्थात् अपरिग्रही रहकर तथा काया का व्युत्सर्जन करके, निदान-रहित होकर शुक्लध्यान को ध्याए और अप्रतिबद्ध होकर विचरण करे। टीका-शास्त्रकार कहते हैं कि विचारशील साधु को आयु-पर्यन्त, अर्थात् मरणसमय तक शुक्लध्यान के आश्रित रहना चाहिए तथा परलोक में जाकर देवादि बनने सम्बन्धी निदान-कर्म को न बांधना चाहिए और द्रव्यादि के परिग्रह को छोड़कर सदा अकिंचन-वृत्ति में अपरिग्रही होकर रहना चाहिए एवं काया के ममत्व का भी परित्याग करके अप्रतिबद्ध होकर. विचरना चाहिए। इन पूर्वोक्त नियमों का पालन करने से साधु के चारित्र में कितनी निर्मलता आ सकती है, तथा उसके इस आदर्शभूत जीवन से संसारवर्ती अनेक भव्य जीवों को कितना लाभ पहुंच सकता है और निजी आत्म-गुणों का कितना विकास हो सकता है, इत्यादि बातों की सहज ही में कल्पना की जा सकती है। शुक्लध्यान मोक्ष का अति समीपवर्ती साधन है, इसलिए अन्य धर्मादि ध्यानों को छोड़कर यहां उसका ही उल्लेख किया गया है। इस प्रकार आयु-पर्यन्त विचरते हुए जब मृत्यु का समय समीप आ जाए, उस समय साधु को क्या करना चाहिए, अब इस विषय का फल-श्रुति-सहित निरूपण करते हैं, यथा निज्जू हिऊण आहारं, कालधम्मे उवट्ठिए । चइऊण माणुसं बोदिं, पहू दुक्खा विमुच्चई ॥ २० ॥ . ___ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३५४] अणगारझयणं णाम पंचतीसइमं अन्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy