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________________ भिक्खियव्वं न केयव्वं, भिक्खुणा भिक्खवत्तिणा । .. कय-विक्कओ महादोसो, भिक्खवत्ती सुहावहा ॥ १५ ॥ भिक्षितव्यं न क्रेतव्यं, भिक्षुणा भैक्ष्यवृत्तिना । क्रयविक्रययोर्महान् दोषः, भिक्षावृत्तिः सुखावहा ॥ १५ ॥ पदार्थान्वयः-भिक्खियव्वं-भिक्षा लेनी चाहिए, न केयव्वं-मूल्य देकर कोई वस्तु न लेनी चाहिए, भिक्खुणा-भिक्षु को, भिक्खवत्तिणा-भिक्षावृत्ति धारण करने वाले को, कयविक्कओ-क्रय-विक्रय में, महा-महान्, दोसो-दोष है, भिक्खवत्ती-भिक्षावृत्ति, सुहावहा-सुख देने वाली है। मूलार्थ-भिक्षु को भिक्षावृत्ति से ही निर्वाह करना चाहिए, परन्तु मूल्य देकर कोई वस्तु न लेनी चाहिए, कारण कि क्रय-विक्रय में महान् दोष है और भिक्षावृत्ति सुख देने वाली है। टीका-प्रस्तुत गाथा में भिक्षु के लिए एकमात्र निर्दोष भिक्षावृत्ति के द्वारा ही संयम-यात्रा के निर्वाह करने का आदेश दिया गया है। भिक्षावृत्ति की श्रेष्ठता को बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि विचारशील साधु अपनी निर्दोष भिक्षावृत्ति से ही निर्वाह करे, न कि क्रय-विक्रय के द्वारा अपनी आत्मा को संक्लेशित करता हुआ उदरपूर्ति का जघन्य प्रयास करे, क्योंकि साधुवृत्ति में क्रय-विक्रय का आचरण महान् दोष का उत्पादक है और उसके विपरीत भिक्षावृत्ति इस लोक तथा परलोक दोनों में ही कल्याण के देने वाली है। इसलिए त्यागशील भिक्षु को निर्दोष भिक्षावृत्ति से हो अपना जीवन-निर्वाह करना चाहिए। ____ अब भिक्षावृत्ति का प्रकार बताते हैं, यथा समुयाणं उंछमेसिज्जा, जहासुत्तमणिदियं । लाभालाभम्मि संतुठे, पिंडवायं चरे मणी ॥ १६ ॥ समुदानमुञ्छमेषयेत्, यथासूत्रमनिन्दितम् । लाभालाभयोः सन्तुष्टः, पिण्डपातं चरेन् मुनिः ॥ १६ ॥ पदार्थान्वयः-समुयाणं-सामुदानिक भिक्षा करता हुआ, उंछे-थोड़े से ही खाद्य पदार्थ की, एसिज्जा-गवेषणा करे, जहासुत्तं-सूत्रानुसार, अणिंदियं-निन्दनीय जाति की भिक्षा न हो, लाभालाभम्मि-लाभ तथा अलाभ में, संतुठे-सन्तुष्ट, पिंडवायं-पिंडपात को, चरे-आसेवन करे, मुणी-भिक्षु। ___मूलार्थ-साधु सूत्रविधि के अनुसार अनिन्दित अनेक कुलों से थोड़े-थोड़े आहार की गवेषणा करे तथा लाभालाभ में सन्तुष्ट रहे, इस प्रकार मुनि भिक्षावृत्ति का आचरण करे। टीका-प्रस्तुत गाथा में भिक्षावृत्ति के प्रकार का वर्णन किया गया है। संयमशील मुनि सूत्रनिर्दिष्ट मर्यादा के अनुसार सामुदानिक गोचरी करे, अर्थात् अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ले। कहीं से भिक्षा की प्राप्ति हो, अथवा न हो, मुनि को दोनों दशाओं में सन्तुष्ट ही रहना चाहिए एवं जो कोई कुल दुर्गुणों के कारण निन्दित हो अथवा अभक्ष्य-भक्षण करने वाला हो, उसको छोड़कर ही भिक्षा ग्रहण करे, अर्थात् निर्दोष उत्तम कुल से शास्त्रविधि के अनुसार भिक्षा ले। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३५२] अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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