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सुवर्ण को समान समझने वाला भिक्षु, सोने-चांदी आदि वस्तुओं के क्रय-विक्रय की मन से भी इच्छा न करे। ..
टीका-जैसे पत्थर के टुकड़े या मिट्टी के ढेले को तुच्छ समझकर कोई उसको नहीं उठाता, उसी प्रकार सुवर्णादि को देखते हुए भी साधु उसका स्पर्श न करे। कारण यह है कि त्यागवृत्ति धारण कर लेने के बाद उसके लिए मिट्टी और सुवर्ण दोनों ही समान हो जाते हैं, इसलिए शास्त्रकार कहते हैं कि साधु सोने-चांदी आदि को ग्रहण करने की शरीर से तो क्या मन से भी इच्छा न करे तथा संयमशील साधु को वस्तुओं के क्रय-विक्रय आदि से भी सदा पृथक् ही रहना चाहिए। वास्तव में तो मिट्टी तथा सुवर्ण को हेयरूप में तुल्य समझने वाले साधु को क्रय-विक्रय आदि में प्रवृत्त होने की कभी इच्छा होती हो, ऐसी तो कल्पना भी नहीं हो सकती।
'कय-विक्कए' यहां पर पंचमी के अर्थ में सप्तमी है। अब क्रय-विक्रय में दोष बताते हुए फिर कहते हैं किकिणंतो कइओ होइ, विक्किणंतो य वाणिओ । कयविक्कयम्मि वटतो, भिक्खू न भवइ तारिसो ॥ १४ ॥
क्रीणन् क्रायको भवति, विक्रीणानश्च वणिक् ।
क्रयविक्रये वर्तमानः, भिक्षुर्न भवति तादृशः ॥ १४ ॥ पदार्थान्वयः-किणंतो-पर की वस्तु को खरीदने वाला, कडओ-क्रायक अर्थात खरीदार, होइ-होता है, य-और, विक्किणंतो-अपनी वस्तु को बेचने वाला, वाणिओ-वणिक् होता है, कयविक्कयम्मि-क्रय-विक्रय में, वट्टतो-वर्तता हुआ, तारिसो-वैसा-जैसे कि भिक्षु के लक्षण वर्णन किए गए हैं, भिक्खू-भिक्षु, न भवइ-नहीं होता।
मूलार्थ-पर की वस्तु को खरीदने वाला क्रायक अर्थात् खरीदार होता है और जो अपनी वस्तु को बेचने वाला है उसे बनिया अर्थात् व्यापारी कहते हैं, अतः क्रय-विक्रय में भाग लेने वाला साधु, साधु नहीं कहला सकता।
टीका-साधु के लिए क्रय-विक्रय का निषेध करते हुए शास्त्रकार कहते है कि क्रय-विक्रय में प्रवृत्त होने वाला साधु, साधु नहीं रह सकता, वह तो बनिया या व्यापारी बन जाता है। तात्पर्य यह है कि साध यदि वस्तओं के खरीदने और बेचने में लग जाएगा तब तो वह साध-धर्म से च्युत होकर एक प्रकार का व्यापारी अर्थात् बनिया हो जाएगा, तथा जिस प्रकार अन्य व्यापारी लोग और सब बातों को छोडकर रात-दिन बेचने और खरीदने के काम में ही निमग्न रहते हैं, उसी प्रकार व्यापार में प्रवृत्त होने वाले साधु को भी अपने साधु-धर्मोचित्त गुणों को तिलांजलि देनी पड़ेगी। ऐसी अवस्था में वह "साधु रह सकता है कि नहीं", इस बात का निर्णय सहज ही में किया जा सकता है। इसलिए विचारशील साधु को अपने संयम की रक्षा के लिए क्रय-विक्रय आदि गृहस्थोचित कार्यों में कभी प्रवृत्त नहीं होना चाहिए।
इसलिए अब साधु-धर्मोचित निर्दोष भिक्षावृत्ति के आचरण के विषय में कहते हैं, यथा
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३५१] अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अज्झयणं